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योगविन्दु की विषय वस्तु बतलाया है। उनके अनुसार अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। जो इसे अपनाता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं -
धम्मो मंगलमुक्किठं अहिंसा संयमो तवो।
देवापि तं नमस्सन्ति जस्स धम्मे सया मणो ।। साधक विचारता है कि धर्म ही विश्व में मित्र, स्वामी, बन्धु और असहायों का सहारा तथा रक्षक है । वह धर्म जिसके अंशमात्र को भी धारण करके साधक मुक्ति प्राप्त करता है। वह सत्य, अहिंसा और अस्तेय आदि रूप से दश प्रकार की स्वीकार किया गया है ।
___ जो साधक धर्म साधना करके पर भव में जाता है उसके कर्म अल्प रहते हैं। अतः उसकी वेदना भी कम होती है । इम उत्तम धर्म से युक्त तिर्यञ्च भी देव होता है तथा उत्तम धर्म के आचरण से चाण्डाल भी सुरेन्द्र बन जाता है। धर्मात्मा की सब जगह कीर्ति फैलती है, वह सब का विश्वास पात्र होता है, वह प्रिय भाषी होता हैं तथा स्व-पर मन को विशुद्ध करता है।
१. दशवकालिक १.१ २. धर्मो गुरू श्च मित्रं च धर्मः स्वामी च बान्धवः ।
अनाथवत्सलः सोऽयं संत्राता कारणं बिना ॥ ज्ञानार्णव, सर्ग २ धर्म भावना
श्लोक ११ ३. दशलक्ष्ययुतः सोऽयं जिनर्धर्मः प्रकीर्तितः ।
यस्यामिपि संसेव्य विन्दन्ति यमिनः शिवम् ॥ वही, श्लोक २ तितिक्षा मार्दव शौचमार्जवं सत्यसंयमौ ।। ब्रह्मचर्य तपस्त्यागाकिञ्चन्यं धर्म उच्यते ॥ वही, श्लोक २० तथा मिला० - संयमः स नृतं शौचं ब्रह्मा किञ्चनता तपः ।
क्षा न्तिमदिवमृजता मुक्तिश्च दशधा स तु । यो०शा०, ४.६३ ४. एवं धम्मपि काऊणं जो गच्छइ परं भवं ।
गच्छन्तो सो सही होइ अप्पकम्मे अवेयणं ॥ उत्तरा० १६.२२ ५. ता सव्वत्थ वि कित्ती ता सव्वत्थ विहवेइ वीसासो।
ता सव्वं पि य भासइ ता सुद्धं माणसं कुणइ ॥ स्वामीकार्तिकेयानुआ,
गा० ४२६ ६. वही, गा० ४३०-३१
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