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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
तप करना चाहिए। निर्जरा तपरूप है। साधक को बल, श्रद्धा, स्वास्थ्य, द्रव्य, क्षेत्र और कालादि का विचार करके तपस्या करना विहित है।
जो साधक समतारूपी सुख में लीन है और बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, इन्द्रियों और कषायों को जीतता है उसकी ही परम निर्जरा होती है।
अतः निर्जगभावना में निर्जरा के स्वरूप, लक्षण और उसके साधनों पर बार-बार चिन्तन करने से साधक के मन में तप, दान और शील के प्रति आकर्षण बढ़ता है जिससे वह आत्मशुद्धि का ओर निरन्तर अग्रसर रहता है। (११) धर्मभावना
इसके अन्तर्गत साधक धर्म के स्वरूप और साधना पर विचार करता है। धर्म की व्याख्या करते हुए आदिकवि वाल्मीकि कहते हैं 'जो धारण किया जाता है वह धर्म है' । धर्म के कारण ही सारी प्रजा
और जगत् ठहरा हुआ है। दुर्गति में गिरते हए जीव को धारण करने वाला ही धर्म कहलाता है—दुर्गतिप्रपतद्प्राणी धारणाद् धर्म उच्चते ।
भगवान् महावीर ने धर्म का बड़ा ही उत्कृष्ट और सर्वोत्तम लक्षण १. नो इहलोगट्ठयाए तवमहिछिज्जा ।
नो परलोगट्ठयाए तवमहिछिज्जा ॥ नो कित्तिवण्ण सद्द सिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा ।
नन्नत्य निज्जरठ्याए तवमहिछिज्जा ॥ दशवैकालिक ६.४ २. तवसा निज्जरिज्जइ । उत्तरा० ३०.६ ३. बलं थामं च पहाए सद्धामारोग्गमप्पणो ।
खेत्तं कालं च विन्नाय तहप्पाणं निजजए ॥ दशवकालिक ८.३५ ४. जो समसोक्खणिलोणो बारंबारं सरेइ अप्पाण।
इंदियकसायविजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥ स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा
गा० ११४ ५. धारणाद् धर्म इत्याहुः धर्मेण विधृता प्रनाः । वाल्मीकि रामायण, ७.५६ ६. दे० योगशास्त्र, २.११
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