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योगबिन्दु की विषय वस्तु
169 स्रोत अवरुद्ध किया जाता है और संयम एवं तप के द्वारा करोड़ों भवों के पूर्व-बद्ध कर्मो की भी निर्जरा करके साधक उन्हें नष्ट कर देता है
जहामहातलागस्स सन्निरुद्ध जलागमे उस्सिंचणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे । एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे
भवकोडोसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ । निर्जरा क्या है ? पूर्व संचित कर्मो अर्थात् संसार के बीजरूप कर्मों का क्षय करना ही निर्जरा है । यह सकाम और अकामनिर्जरा के भेद से दो प्रकार की होती है। संयमी महामुनि तपस्या द्वारा कर्मसम्ह को नष्ट करता है, इससे उसकी सकामनिर्जरा होती है, जबकि शेष प्राणियों की अकामनिर्जरा होती है ।
यद्यपि कर्म अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे हुए हैं फिर भी साधक ध्यानरूपी अग्नि से उन्हें वैसे ही नष्ट कर देता है जैसे अग्नि से सोने का मेल नष्ट होकर, जल कर सोना शुद्ध हो जाता है, ऐसे तपस्या से कर्मों की निर्जरा होने पर आत्मा परम विशुद्ध हो जातो है ।।
इस प्रकार साधक को लौकिक अथवा अलौकिक हेतु को छोड़कर
१. उत्तराध्ययनसूत्र ३०.५-६ २. यया कर्माणि शीर्यन्ते बीजभतानि जन्मनः ।
प्रणीता यमिभिः सेयं निर्जरा जीर्णबन्धनै ॥ ज्ञानार्णव सर्ग २ निर्जराभावना श्लोक १ तथा मिला०-संसारबीजमतानां कर्माणां जरणादिह ।
निर्जराला स्मृता द्वघा सकामाकामवजिता ।। यो शा०, ४.८६ संसारहेतुभताया, यः क्षयः कर्मसन्ततेः । निर्जरा सा पुनद्वधा, सकामाऽकामभेदतः ॥ प्रवचनसारोद्वार प्र०भा० द्वार ६७, निर्जरा भावना श्लोक १ निर्जरा यमिनां पूर्वा ततोऽन्या सर्वदेहिनाम् । ज्ञानार्णव, सर्ग-२ निर्जरा
भावना श्लोक २ ४. ध्यानानलसमात्यीढमप्यनादिसमुद्भवम् ।
सद्यः प्रक्षीयते कर्म शुद्धयत्यङ गी सुवर्णवत् ॥ वही, श्लोक ८
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