SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 168 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन संवर के २० भेद गिनाए गए हैं । इसी आगम स्थानांगसूत्र में ही एक दूसरे स्थान पर संवर के ५७ भेद भी बतलाए गए हैं। संवर में दढ हए साधक की तुलना वीर योद्धा से करते हए आचार्य शुभचन्द्र बतलाते हैं कि जैसे सब प्रकार से सधा हुआ योद्धा युद्ध में वाणों से घायल नहीं होता वैसे ही संवरभावना का धारक सावक भी संसार में कर्मों से लिप्त नहीं होता । जब साधक साधना के द्वारा समस्त कल्पनाओं के जाल को छोड़कर अपने स्वरूप में मन को स्थिर करता है तब ही वह परम संवर का धारक होता है। जो संवर के कारणों को जानता हुआ भी उन्हें अपने आचरण में नहीं लाता है, वह दुःखों से संतप्त होकर चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है। अतएव साधक का संवर की भावना से अपनी आत्मा को भावित करना ही संवर भावना है। (१०) निर्जराभावना संवरभावना में साधक कर्मस्रोत का निरोध करता है। निर्जराभावना में वही पूर्व संचित कर्मसमूह को वैसे ही विनष्ट किया जाता है जैसे किसी बड़े तालाब में जल भरने के द्वार को रोक देने पर पहले से भरे जल को उलीच कर तालाब को रिक्त कर दिया जाता है अथवा सूर्य के ताप से उसे सुखा दिया जाता है, ऐसे ही संवर से कर्म जल रूपी १. स्थानांगसूत्र १ .७.६ २. स्थानांगसूत्र, वत्ति स्थान-१ ३. असंयममयर्वाणः संवृतात्मा न भियते । यमी तथा ससन्नद्धो वीरः समरसंकटे ॥ ज्ञानाणंव सर्ग २, संवर भावना श्लोक ४ ४. विहायकल्पनाजालं स्वरूपे निश्चलं मनः ।। ___ यदाधत्तं तदैव स्यान्मुनेः परम संवरः ॥ वही, श्लोक ११ ५. एदे संवरहेदु वियारमाणो वि जोण आयरइ । सो भमह चिरं कालं संसारे दुक्खसंत्ततो॥ स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० १०० ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy