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________________ 166 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन आत्मा को आवृत्त क्यों करते हैं ? इसका चिन्तन करना ही आश्रवभावना है। आश्रव का लक्षण करते हुए आचार्य उमास्वाति कहते हैं कि शरीर, वाणी और मन को योग कहा जाता है, वही आश्रव है--- कायवाङमनः कर्मयोगः । स आश्रवः । इन्हीं मन, वचन और काया की शुभाशुभ प्रवृत्तियों से कर्मों का बन्ध होता है। इस कारण मन, वचन काया का व्यापार ही आश्रवद्वार है । आश्चवों का निरोध जब तक नहीं हो जाता है तब तक कर्म आत्मा को आवृत्त करते रहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे नदी के उद्गम स्थान पर धुआंधार वर्षा होने पर नदी के प्रवाह को नहीं रोका जा सकता ऐसे ही मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति को विशद्ध किए बिना कर्मावृत्तत्व नहीं रोका जा सकता। मिथ्यात्व कषाय आदि के भेद से आश्रव भी २० प्रकार का बतलाया गया है। जबकि स्वामी कार्तिकेय कषाय के ५७ भेद करते हैं। जो इन कषायों का त्याग करता है उसी योगी की आश्रव अनुप्रेक्षा सफल होती है: एदे मोहयभावा जो परिवज्जेह उसमे लीणो। हेयंति मण्णमाणो आसव अणुवेहणं तस्स ॥ १. तत्त्वार्थसूत्र ६.१-२ मनस्तनुवचः कर्म योग इत्यभिधीयते । स एवाश्रव इत्युक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदैः ॥ ज्ञानार्णव, सर्ग २, आस्रवभावना, श्लोक १ तथा मिला०-- मनोवाक्कायकर्माणि योगा: कर्मशुभाशु भम् । यदाश्रवन्ति जन्तूनामाश्रवात्येन कीर्तिताः ।। योगशा०, ४.७४ तथा, मनोवचो वपुथोगः, कर्म येना शुभं शुभम् । भविनामाश्रवन्त्येते प्रोक्तास्तेनाश्रवाजिनः ॥ प्रवचनसारोद्वार ६७, प्रथम भाग आश्रव भावना श्लोक १ ३. विशेष के लिए दे० - प्रश्नव्याकरणासूत्र, आश्रव द्वार ४. स्वामि कार्तिकेयानुपेक्षा. गा० ६४ तथा उसकी व्याख्या, पृ० ४६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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