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________________ योगविन्दु की विषय वस्तु 165 स्वभाव है, इस विनाशशील शरीर को देर व सबेर छोड़ना हो पड़ता है। आचार्य उमास्वाति बतलाते हैं कि इस शरीर का आदि रज और वीर्य है और ये दोनों ही अपवित्र हैं। जिसके दोनों ही कारण अपवित्र हैं वह भला पवित्र कैसे हो सकता है । अतएव इस तत्त्व पर सम्यक् विचार करना चाहिए। इस शरीर के नौ द्वारों से निरन्तर दुर्गन्ध बहता रहता है । ऐसे अपावन देह में पवित्रता की कल्पना करना महान् मोह की विडम्बना है। जो दूसरों के शरीर से विरक्त है और अपने शरीर से अनुराग नहीं करता तथा आत्मा के शुद्ध चिद्रूप में लीन रहता है उसी की भावना करना अशुचिभावना है - जो परदेहविरतो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं । अप्पसरुवि सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स ।' इस प्रकार शरीर की अपवित्रता का निरन्तर विचार करते हुए उसके प्रति रही हुई आसक्ति को समाप्त करना ही अशुचि भावना है। (८) आश्रवभावना आत्मा परमात्मा में यदि कोई अन्तर करता है तो वह है-कर्म । आत्मा कर्मों से आवृत्त है और परमात्मा कर्मों से निरावृत्त। कर्म १. एवं खलु अम्मयाओ। माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं विविहवाहि सय सन्निकेयं अट्ठिकठुठ्ठियं छिराए हासजालडवणद्धंसपिणद्ध मट्टियमंडं व दुब्बलं असुइ संकिलिट्ठ अणिट्टविय सबकालसंठप्पयं जरा कुणिम जज्ज्जरघरं च सडण पडणविद्धंसण धम्म । भगवतीसूत्र ६.३३ २. अशुचिकरणासाम् पर्यादा तरकारणाशु चित्वाच्च । देहस्या शुचिभावः स्थाने स्थाने भवति चिन्त्यः ॥ प्रशमरति प्रकरण, श्लोक ११५ ३. नवस्रोतः स्रवद्विस्ररसनिःस्यन्द पिच्छिले । देहेऽपि शौचसंकल्मो मह-मोहविजृम्भितम् ॥ योगशास्त्र, ४.७३ ४. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ८७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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