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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
(३) संसारभावना
इस में साधक संसार के स्वरूप और उसके वैचित्र्य पर विचार करता है। संसार का अर्थ ही है--संसरण करना, गमन करना, चलते रहना, एक भव से दूसरे भव में भ्रमण करते रहना आदि-संसरणं संसारः । भवाद् भवगमनं नरकादिषु पुनभ्रमणं वा ।
संसार के स्वरूप का वर्णन करते हुए स्थानांगसूत्र में बताया गया है कि संसार चार प्रकार है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसंसार । धर्माधर्मास्ति आदि यह षडद्रव्यरूप द्रव्यसंसार है। चौदह राजुप्रमाण जगत् क्षेत्रसंसार है । दिन-रात, पक्ष-मास, पुद्गल परावर्तन तक का कालप्रमाण कालसंसार है। कर्मोदय के कारण जीव के राग-द्वेषात्मक जो परिणाम होते हैं, जिनके फलस्वरूप प्राणी जन्म मरण करता हैं उसी का नाम भावसंसार है।
संसार चतुर्गत्यात्मक भी बतलाया गया है वे चार गतियां हैं--- नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति । इन चारों गतियों के चौबीस दण्डक भी होते हैं और उनकी चौरासी लाख योनियां (उत्त्पत्ति स्थान)
आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि संसार अनादि हैं, इसमें चार गतियां हैं । जोव अनन्त पुद्गल परावर्तों में से गुजरता है। ऐसे अनन्त पुद्गल परावर्त व्यतीत हो चुके हैं।'
आचार्य हेमचन्द्र संसार की विचित्रता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि संसारी जोव संसार रूपी नाटक में नट की भाँति चष्टाएं करता है। विद्वान् कभी मरकर चाण्डाल बन जाता है तो कभी स्वामी अथवा सेवक के रूप में उत्पन्न होता है और प्रजापति भी कीट के रूप में जन्म लेते
१. दबसंसारे, खेतसंसारे, कालसंसारे भावसंसारे । स्थाना० ४.१.२६१ २. णेरइयसंसारे, तिरियसंसारे, मणुस्ससंसारे, देवसंसारे। स्थानां० ४.१.२६४ ३. दे० भावनायोग एक विश्लेषण, पृ० १८६ ४. कनादिरेषसंसारी नानागतिसमाश्रयः ।
पुलानां परावर्ता, अत्रानन्तास्तथा गताः ॥ यो०बि०, श्लोक ७४
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