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योगबिन्दु की विषय वस्तु
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अतः इस अशरण भूत संसार में धर्म ही एक सहारा अथवा शरण है, वह ही रक्षक है। जन्म, जरा, मृत्यु, भय, रोग एवं शोक आदि से पीडित जनों का संसार में जिनेश्वरदेव के उपदेश और उनके द्वारा निर्देशित धर्म ही त्राता और एकमात्र शरण है। उसके सिवाय कोई रक्षक बचाने वाला नहीं है।'
__ जरा-मृत्यु के वेग में बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही एक ऐसा द्वीप है, उत्तम गति है और शरण है तथा ठहरने का स्थान है जहां जाकर जो प्राणी भयभीत है, वह निर्भय हो जाता है और उसे वह धर्म ही एकमात्र शरण स्थल है जहां वह शान्ति पूर्वक रह सकता है।
संसार में यदि कोई मनुष्य का सच्चा साथी है तो वह है-धर्म जब धन-सम्पत्ति, पुत्र-पत्नो एवं स्वजन आदि सब साथ छोड़ देते हैं, तब एक मात्र धर्म ही प्राणी के साथ परलोक में जाता है और उसी के कारण यथायोग्य गति एवं गोत्र आदि पाता है। इसलिए धर्म ही श्रेयस्कर है क्योंकि इसी से ही सच्चा सुख और मोक्ष मिलता है।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप धर्म ही शरण है। परम श्रदा के साथ उसी को अपनाना चाहिए । इनके अतिरिक्त संसार में कोई शरण नहीं है । आत्मा को क्षमा आदि उत्तम भावों से युक्त करना भी शरण है क्योंकि जो कषायों से आविष्ट है, वह स्वयं ही अपना घात करता है।
१. जन्मजरामरणभयैरभिद्र ते व्याघिवेदनाग्रस्ते ।
जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥ प्रश०प्र०, श्लोक १५२ २. एक्कोहि धम्मो नरदेव ताणं ।
न विज्जइ अन्नमिहेह किंचि ॥ उत्तरा०, १४.४० ३. जरामरणवेगेणं बुज्झमाणाण पाणिणं ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं । वही, २२.६८ ४. विमुखा बान्धव यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति । मनुस्मति, ३.२४१ ५. दंसण-नाण-चरित्तसरणं सेवेहि परमसद्धाए ।
अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥ स्वामिकार्तिक०, गा० ३० अप्पाणं पिय सरणं खमादिभावेहि परिणदं होदि । तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हवदि अप्पेण । वही, गा० ३१
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