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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
जब यह कालरूपी बाज प्राणियों पर झपट्टा मारता है, तब देखता नहीं कि यह बूढ़ा है अथवा जवान या कि बच्चा है। किसी भी तरह का कोई विचार वह नहीं करता । बस यह तो आयु के समाप्त होने पर चुपचाप उसके प्राणों को छीन ले जाता है ।" गीता में कहा है कि जो जन्मा है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है : जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः | 2
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इतना ही नहीं बल्कि यह भी किसी को कुछ ज्ञात नहीं हो पाता कि मृत्यु आएगी तो कब आवेगी। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'मणि, मन्त्र तन्त्र, औषधि, हाथी, घोड़े अथवा सैनिक अथवा कोई भी विद्या मृत्यु के मुख में फंसे हुए प्राणी को नहीं बचा सकती
यो यह सोचता है कि यह धन वैभव मेरी रक्षा करेगा, ये मेरे परिजन हैं, मैं इनका हूं, यह मेरी रक्षा करेंगे, तो यह उसकी भ्रान्ति है परन्तु मृत्यु के आने पर कोई शरण नहीं है । "
मणिमन्तो सहरखा हयशय रहगो य सयल विज्जाओ । जीवाणं वा हि मरणं तिसु लोगमरण समयम्मि ||
भावनाशतक में भी कहा हैं कि धन दौलत, राज्य, वैभव, नौकर एवं सुन्दर नारियां तभी तक सहायक हैं जब तक पुण्य प्रबल है किन्तु जब पुण्य क्षीण होने लगता है तो मृत्यु के गाल में समा जाते हैं और श्मशान ही उसकी एक मात्र शरण स्थली बन जाती है । "
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१. डहरा बुढा य पासह, गव्भत्थावि चयन्ति माणवा ।
सेणे जह वट्टयं हरे एवं आउखयम्मि तुट्टई || सूत्रकृतांगसूत्र १, अ०२, उ. १श्लो २ २. गीता, २.२७
३. नाणागमोमच्युमुहलस अस्थि । आचारांगसूत्र १.४.२
४. दे० वारस अणुवेवखा. असरणभावना तथा मिला० मणि मन्त्र तन्त्र बहु होई, मरते न बचावे कोई | छहढाला, ५.४
वित्तं पसवो य नाइयां, तं बाले सरणं ति मन्नइ ।
६.
एए मम तेसु वि अहं, नो ताणं सरणं न विज्जइ । सूत्रकृतांगसूत्र १.२.३.१६
राज्यं प्राज्यं क्षितिरतिफलाकिङ कराकामचाराः
साराहारामदनसुभगा भोगभूय्यां रमण्यं ।
एतत् सर्वं भवति शरणं याक्देव स्वपुण्यं
मृत्यो तु स्थान्न किमपि विनाऽरण्यमे कशरण्यम् ॥ भा०शत०. श्लोक, १६
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