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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
अनित्य आदि बारह भावनाओं के स्वभाव को अच्छी प्रकार से जानकर उसके प्रति अनासक्त, अभय और आशंसा रहित हो जाना वैराग्यभावना कहलाती है । इनके चिन्तन से साधक ध्यान में स्थिरता प्राप्त करता हैं ।"
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अतः अध्यात्मयोगी के लिए इन भावनाओं का चिन्तन-मनन अतीव आवश्यक है । इससे साधक के वैभाविक संस्कारों का विलय, अध्यात्मतत्त्व की स्थिरता और आत्मगुणों का उत्कर्ष होता है ।
अब यहां वैराग्यप्रधान और योग की द्वितीय भूमि बारह भावनाओं का संक्षेप में वर्णन किया जाता है ।
(१) अनित्यभावना
इस भावना के अन्तर्गत संसार के पदार्थों की अनित्यता, नश्वरता आदि का चिन्तन करते हुए उनके प्रति होने वाली आसक्ति को विनष्ट किया जाता है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि - ' जिस शरीर, यौवन, रूप और सम्पत्ति पर तुम आसक्त हो रहे हो, उनकी स्थिति तो बादलों में चमकने वाली बिजली के समान क्षणिक है' 12 तब फिर तुम किस पर, क्यों और कितने समय के लिए आसक्त हो रहे हो ।
आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि 'मानव का मोह शरीर और ऐश्वर्य पर होता है किन्तु ये सभी अपने विनाश के कारणों से घिरे हुए हैं। आगे भी उन्होंने कहा है कि शरीर को रोगों ने, यौवन को बुढ़ापे ने, ऐश्वर्य को विनाश ने तथा जीवन को मृत्यु ने घेर रखा है तब ऐसी स्थिति में हे साधक, क्यों इन पर ममत्व भाव रखते हो। तुम्हारा यह जो शरीर है, वह तो वैसे ही प्रतिक्षण गला जा रहा है' ।' यद्यपि शरीर सभी
१. सुविदियं जगस्स भान्ते निसंगओ निव्भओ निरासो व ।
वेग भाविभयणो झाणं सुनिच्चलो होइ ॥ ध्यानशतक, गाथा ३५ २. जीवियं चेव रूपं च विज्जुसंपाय- चंचलं ।
जत्थ तं मुच्झसी रायं पच्चत्थं नावबुज्झये ॥ उत्तरा०, १८.१३ ३. वपुर्विद्धिरुजाक्रान्तं जरा कान्तं च यौवनम् ।
ऐश्वर्यं च विनाशान्तं मरणान्तं च जीवितम् ॥ ज्ञानार्णव, सर्ग २ अनित्यभावना, श्लोक १०
प्रतिक्षणं शीर्यन्ते इति शरीराणि । स्थानांग ० ५०१ अभयदेवसूरि, टीका
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