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योगबिन्दु की विषय वस्तु पुरुषाथों को सिद्धि का फल है फिर भी वह प्रचण्ड पवन से छिन्न-भिन्न बादलों के समान विनाशशील है ।।
जिस शरीर से मानव इतना मोह करता है वह तो प्रातःकालीन घास के अग्रभाग पर पड़े हए ओस बिन्दु के समान बड़ा ही चंचल है जैसे वह वाय के झोंके के लगने से मिट्टी में मिल जाता है, वैसे ही मानव शरीर भी मौतरूपी वायु के झोंको के थपेड़ों को न सहता हुआ धराशायी हो जाता है। इसलिए हे गौतम ! तुम क्षण भर भी प्रमाद मत करो, क्योंकि वह शरीर अनित्य है । अशाश्वत है एकमात्र आत्मा ही शाश्वत एवं ज्ञानमयी है।
- यह समस्त लक्ष्मी भी वैसे ही चंचला है जैसे दीपक की लौ हवा के झोंके से कांपने लगती है। कोई पता नहीं कब तीव्र हवा का झोंका आए और इस दीपक को बुझा दें। तब हे मूढमति सत्त्व ! तू क्यों 'यह मेरी है' ऐसा मानकर हृदय से प्रसन्न हो रहा ? जब इस प्रकार लक्ष्मी को भी विनाश रूपी हवा के झोंके लगते रहते हैं तब इसका भी कोई भरोसा नहीं, इसका कोई पता भी नहीं कि यह कब नष्ट हो जाए। फिर भी इसके पीछे सभो लगे रहते हैं, जिसे सभी परिजन लेना भी चाहते हैं, चुराना चाहते हैं, राजा गण विविध कानूनों से इसे हड़पना चाहते हैं। अग्नि जिसे जला देती हैं, पानी बहा ले जाता है, जमीन में गढ़ा धन यक्ष निकाल ले जाते हैं और यदि इसे बचा कर रखा भी जाए तो कुपुत्र उड़ा खा लेते हैं। ऐसे खतरे वाले और बहुत लोगों के हाथ
१. शरीरं देहिनां सर्वपुरुषार्थ निबन्धनम् ।
प्रचण्डपवनोद्भूतं धनाधनविनश्वरम् ॥ योगशास्त्र, ४.५८ २. कुसग्गे जह ओसबिन्दुए, थोवं चिट्टइ लम्बमाणए ।
एवं मणुयाणजीवियं संयमं गोयम मा पमायए । उत्तरा०, १०.२ ३. इमं सरीरं अणिच्चं । उत्तरा०, १६.१३ ४. असासए सरीरम्मि । वही, १६.१४ ५. वातोद्वेल्लितदीकपाङ कुरसमां लक्ष्मी जगन्मोहिनाम् ।।
दृष्टवा किं हृदि मोदसे हतमते मत्वाममश्रीरिति । भा०शा०, श्लोक २
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