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________________ 137 योगबिन्दु की विषय वस्तु की, योग से युक्त होने की बार-बार प्रेरणा दी गयी है। इसका कारण यह है कि चारित्रिक विकास के लिए अध्यात्मयोग के अनुष्ठान की नितान्त आवश्यकता है । इसीलिए आचार्यश्री ने सर्वप्रथम अध्यात्मयोग की भूमि का निर्देश मुमुक्षु साधक को दिया है। अध्यात्मयोग से अभिप्राय क्या है ? इस पर आचार्य ने कहा है कि.-'उचित प्रवत्ति से अणुव्रत, महाव्रत से युक्त, चारित्र का पालन करना, उसके साथ-साथ मैत्री आदि भावनापूर्वक आगमवचनों के अनुसार तत्त्वचिन्तन भी करना' अध्यात्मयोग कहलाता है।' अध्यात्म में अधि और आत्म ऐसे ये दो पद हैं जिसका अर्थ हैआत्मा को आत्मा में अधिष्ठित करके रहना। इसका तात्पर्य है कि जो अपने में ही सदैव बना रहता है, अपने में ही रमण करता है, वह ही अध्यात्म है। अध्यात्म तत्सम्बद्ध बहुविध कार्य-कलाप में भी घटित होता है । अध्यात्मयोग के तत्त्वचिन्तन रूप लक्षण में दिए गए ये चार विशेषण बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं—(१) औचित्य, (२) वृत्तसमवेतत्त्व, (३) आगमानुसारित्व और (४) मैत्री आदि भावना। इन पर विचार करने से अध्यात्म का वास्तविक रहस्य भली-भांति स्पस्ट हो जाता है। (क) औचित्याद् व्याख्याकार इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं-औचित्याद 'उचित प्रवृत्तिरूपात्' अर्थात् शास्त्र विहित शुभ प्रवृत्ति करने से अध्यात्म पुष्ट होता है। (ख) वृत्तयुक्तस्य इसकी टीका करते हुए टीकाकार लिखते हैं कि 'वृत्तयुक्तस्याणऔचित्याद् वृत्तयुक्तस्य, वचनात्तत्वचिन्तनम् । मैत्र्या दिसारमत्यन्तमध्यात्मं तद्विदो विदुः ॥ योगबिन्दु, श्लोक ३५८ एवं विचित्रमध्यात्ममेतदन्वर्थयोगतः । आत्मन्यधीतिसंवृत्ते यमध्यात्मचिन्तकैः ॥ वही, श्लोक ४०४ तथा दे० इसी की संस्कृत टीका २. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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