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136 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन लिए क्रमशः क्रियायोंग और अष्टांगयोग का विधान योगवातिक में विज्ञान भिक्षु ने और अधिक स्पष्ट रूप से समझाया है। योग की भूमियां
आध्यात्मिक दृष्टि से योग के बीज तथा विचार पुरातन जैन आगमों में प्राप्त हो जाते हैं फिर भी उनको क्रमशः व्यवस्थित स्वरूप देकर जैन योग को पृथक्तया स्थिर करने का आदिश्रेय आचार्य हरिभद्रसूरि को ही जाता है।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने योग विषयक प्रमुख चार ग्रंथों में जैनयोग का सांगोपांग तथा क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत किया है। योगबिन्दु में उन्होंने जैन योग की पांच भूमियों का वर्णन किया है। जो इस प्रकार है(१) अध्यात्म
(४) समता और (२) भावना
(५) वृत्तिसंक्षय (३) ध्यान
पातञ्जलयोगसूत्र में निर्दिष्ट सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात ये दोनों समाधियां भी इन्हीं में समाविष्ट हो जाती हैं।
अध्यात्मयोग
जैन आगमों में मोक्षाभिलाषी आत्मा को अध्यात्मयोगी बनने पूर्वपादे ह्य त्तमाधिकारिणाम् अभ्यासवैराग्ये एव योगयोः साधनमुक्तम्, तत्तश्च मन्दाधिकारिणाम् तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानान्यपि केवलानि साधनान्येतत्पादस्यादावुक्तानि । अतः परं मन्दारिमान् यमादीन्यपि
योगसाधनानि वक्तव्यानि, ज्ञानसाधनप्रसंगेन । योगवातिक, २.२८ २. अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः ।
मोक्षेण योजनायोग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ योगबिन्दु, श्लोक ३१ ३. (क) अज्झप्पजोगसुद्धादाणं उवदिटिठए ठिअप्पा । सूत्रकृतांग०, १.१६.३ (ख) अज्झप्प ज्झाणजुत्ते (अध्यात्म (अध्यात्म ध्यान युक्त) प्रश्नव्याकरण
३, संवरद्वार व्याख्याकार मे इस सूत्र की निम्न ब्याख्या की हैंअध्यात्म नि आत्मानमधिकृत्य आत्मालंबनं ध्यानं चित्तनिरोधः तेन युक्तः । वही
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