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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
परिशुद्ध होकर जिन धार्मिक क्रिया एवं अनुष्ठानों को करता है, उन्हें जैन परम्परा में योग माना गया है ।।
चरमावर्त का साधक आध्यात्मिक उत्थान की ओर अग्रसर होते हुए समता की प्राप्ति करता है। जहां उसे प्रिय-अप्रिय, सुन्दर-असुन्दर से मोह-द्वेष नहीं रहता, बल्कि उसके सभी प्रलोभन एवं मिथ्यात्व समाप्त हो जाते हैं।
___ योग के सूक्ष्म ज्ञाता महर्षि पतञ्जलि ने भी योगाधिकारी पर चिन्तन किया है। आपके अनुसार ये अजिकारी दो प्रकार के होते हैंभवप्रत्यय योगाधिकारी और उपायप्रत्यय योगाधिकारी। इसके बाद उन्होंने पुनः भवप्रत्यय के भी दो भेद किए हैं- (१) विदेह और (२) प्रकृतिलय । भोजवृत्तिकार के अनुसार जो योगी वितर्कानुगत तथा विचारानुगत भूमि में प्रविष्ट होकर वहां प्राप्त आनन्दातिरेक को ही मोक्ष मानते हैं, वे विदेहयोगी कहे जाते हैं। ____ इसके विपरीत जो साधक अस्मितानुगत समाधि के चित्त में उद्भूत अस्मितावृत्ति को आत्मा मान कर स्वयं को कृतार्थ मानने लगते हैं, उन्हें प्रकृतिलययोगी बतलाया गया है।
इन दोनों श्रेणो के योगी वितर्कानुगत तथा विचारानुगत समाधि में पंच महाभूतों, इन्द्रियों और पांच सूक्ष्मों का साक्षात्कार कर लेने के कारण शरीर से आत्माध्यास छोड़ चुके होते हैं, किन्तु वास्तविक आत्मदर्शन से वंचित होने से वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते। सांख्यदर्शन के निम्न वचनों का भी यही अभिप्राय सिद्ध होता है कि आनन्द की प्रगटता मात्र मुक्ति नहीं है-नानन्दाभिव्यक्तिमुक्तिः विधर्मत्वात् । क्योंकि कारण १. दे० योगलक्षण द्वाविंशिका, श्लोक २२ २. भवप्रत्ययो विदेशप्रकृतिलयानाम् । पा० योगसूत्र, १.१६ ३. दे० पातंजलयोग सूत्र एक अध्ययन, पृ० १४८ ४. यत्रान्तर्मुखतया प्रतिलोम परिणामे प्रकृतिलीने चेतसि सत्तामात्र अवभाति
साऽस्मिता । अस्मिन्नेव समाधौ ये कृतपरितोषाः परं परमात्मानं पुरुषं न पश्यन्ति, तेषां चेतसि स्वकारणे लयमुपाये, प्रकृतिलया इत्युच्यन्ते ।
(भट्टाचार्य) पातंजलयोगसूत्र पर भोजवृत्ति, पृ० २६ ५. सांख्यसूत्र, ५.७४
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