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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
है इसलिए उसे धर्मव्यापार को भी कोई आवश्यकता नहीं रहती। उसकी प्रवृत्ति सहज रूप में धर्ममय ही बनी रहती है । योग का अधिकारी
अन्तिम पुद्गल परावर्त में स्थित शुक्ल पाक्षिक-मोहनीय कर्म के तीव्र भाव से रहित, भिन्न ग्रंथि अर्थात् जिसकी मोह प्रसूत कार्मिक ग्रंथि टूट गयी है, जा चारित्र पालन के पथ पर समारुढ़ है, वही योग का अधिकारी है। योगाधिकारी के भेद
योगबिन्दु के अनुसार योग के अधिकारो साधक दो प्रकार के होते हैं-अचरमावर्ती तथा चरमावर्ती ।
(१) अचरमावर्ती
इस साधक पर मोह आदि परभावों का अत्यधिक प्रभाव होता है। अतः उसकी प्रवृत्ति घोर सांसारिक, विवेक रहित एवं अध्यात्मिक भावनादि क्रिया कलापों से विमुख होती है। सांसारिक पदार्थों में लोभ, मोह के कारण ही जीव को भवाभिनन्दी कहा गया है। यद्यपि अचरमावर्ती अथवा भवाभिनन्दी जीव धार्मिक व्रत नियमों का पालन-अनुष्ठान आदि करता है किन्तु यह सब श्रद्धाविहीन होता है। सद्धर्म एवं लौकिक कार्य भी वह कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि की कामना से करता है। इस दृष्टि से इसे लोकपंक्तिकृतादर भी कहा गया है ।। १. जैन योग सिद्धान्त और साधना, पृ० ७६ २. (क) चरमे पुद्गलावर्ते यतो यः शुक्लपाक्षिकः ।
भिन्नग्रन्थि श्चरित्री च तस्यैवैतदुदाहृतम् ॥ योगबिन्दु, श्लोक ७२ (ख) अहिगारी पुण एतथं विष्णओ अपुणबंधाइ त्ति।
तह तह नियत्तमयई अहिगारोऽणेगमेओ त्ति ॥ यो० श०, गा०६ ३. . प्रदीर्घमवसद्भावान्मालिन्यातिशयात् तथा । ... अतत्त्वामिनिवेशाच्च नान्येष्वन्यस्य जातुचित् ॥ यो० बि०, श्लोक ७३ ४. भवाभिनन्दी प्रायस्त्रिसंज्ञा एवं दुःखिताः ।
केचित् धर्मवृतोऽपि स्युर्लोकभक्तिकृतादराः ॥ वही, श्लोक ७६ तथा दे०८८
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