SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगबिन्दु की विषय वस्तु 129 (४) धारण ग्रहण किए हुए संस्कारों का चित्त में स्थिर होना धारण है। (५) विज्ञान यहां विज्ञान का अर्थ है--विशेषज्ञान अर्थात् पहले अवधारण किए हुए बोध को दृढ़ करना विज्ञान है । (६) ईहा चिन्तन, मनन, विमर्श एवं शंका समाधान करना ईहा कहलाती है। (७) अपोह ..तर्क-वितर्क के बाद बाध अंशक के निवारण का नाम अपोह है। (८) तत्वाभिनिवेश अन्तःकरण में तत्त्व का निर्धारण होना तत्त्वाभिनिवेश है। योगी के तीन अवंचक होते हैं--(१) योगावंचक (२) क्रियावंचक (३) फलावंचक । प्रवृत्तचऋयोगी इन तीनों को ही प्राप्त कर लेता है। इनका फल जो अमोध होता है वही तृतीय फलावंचक है। प्रवृत्तचक्रयोगी सर्वप्रथम योगावंचक को धारणा करता है और फिर उसे शेष दोनों अवंचक भी प्राप्त हो जाते हैं। प्रवृत्तचक्रयोगी अपनी आत्मा की उन्नति के लिए यम-नियमों का पालन करता है तथा रागद्वेष के सोपानों को एक के बाद एक पार करता जाता है। (४) निष्पन्नयोगी जिसका योग निष्पन्न हो चुका होता है अथवा पूर्ण हो गया होता है वह निष्पन्नयोगी कहलाता है। ऐसा योगी सिद्धि के अति निकट होता १. क्रियायोगफलाख्यं यत् श्रूयतेऽवंचकत्रयम् । साधुनाश्रित्य परममिषुलक्ष्यप्रियोपमम् ॥ योगदृष्टिसमुच्चय, श्लोक ३४ २. आद्यावञ्चकयोगाप्त्या तदन्यद्वयलाभिनः । एतेऽधिकारिणो योगप्रयोगस्येति तद्विदः । वही, श्लोक २१३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy