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________________ योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन भूमि की भव्यता और साधनों की सुलभता से ही योगसाधना की सिद्धि नहीं की जा सकती, वह तो साधक की अपनी भव्यता, योग्यता और सुपात्रता से ही सिद्ध होती है किन्तु गोत्रयोगी में ऐसी योग्यता तथा सुपात्रता नहीं होती बल्कि साधनों के सहज रूप ही प्राप्त होने पर भी वह यम-नियम तक का पालन नहीं करता । उसकी प्रवृत्तियां यहां संसाराभिमुखी हो जाती हैं । अतः ऐसे मनुष्य को योग का अधिकारी नहीं माना जा सकता । 128 (३) प्रवृत्तचक्रयोगी जैसे चक्र के किसी भाग पर दण्ड को साध कर घुमा देने से वह पूरा का पूरा घूमने लगता है वैसे ही जिन मनुष्यों के किसी भी अंग से योगचक्र का स्पर्श हो जाता है तो वे योग में प्रवृत्त हो जाते हैं और उन्हें इसी कारण प्रवृत्तचत्रयोगी कहा जाता है ।" वे यम के चार± भेदों में से इच्छायम और प्रवृत्तियम को साध चुके होते हैं तथा स्थिरयम और सिद्धियम को साधने में प्रयत्नशील भी रहते हैं । यह प्रवृत्तचत्रयोगी आठ गुणों से युक्त होता है, वे गुण हैं: (१) शुश्रूषा सत् तत्त्व सुनने को तीव्र अभिलाषा शुश्रूषा कहलाती है । (२) श्रवण अर्थ का मनन-अनुसन्धान करते हुए सावधानी पूर्वक वीतरागवाणी को सुनने का नाम श्रवण है । (३) ग्रहण सुने हुए को अधिग्रहीत करना ग्रहण कहलाता हैं । १. प्रवृत्तचक्रास्तु पुनर्यमद्वयसमाश्रयाः । शेषद्वयाविनोऽत्यन्तं शुश्रूषाविगुणान्विताः ।। वही, श्लोक २१२ २. यमाश्चतुविधा इच्छाप्रवृत्ति स्थैर्यसिद्धयः । योगभेद द्वात्रिंशिका, श्लोक २५ ३. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक २१२ पर संस्कृत टीका : अत एवाह शुश्रूषाश्रवणग्रहणधारणविज्ञाने हापोहतत्त्वाभिनिवेशगुणयुक्ताः । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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