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योगबिन्दु की विषय वस्तु
125 ऐसी स्थिति में प्राणियों के प्रति समता और असंगानुष्ठान उदित होता है, जिससे वह मोक्षमार्ग पर तीव्रता से अग्रसर हो जाता है। यहां साधक परम वीतरागभाव को प्राप्त करने की ओर बढ़ता है। इसीलिए इसे प्रशान्तवाहिता विसंभाग परिक्षय, शिववर्त्म और ध्र वाध्वा भी कहा गया है। इसकी उपमा सूर्य के प्रकाश से दी गयो है जिससे वह बहुत सुस्पष्ट और तेजमय हो जाता है। परादृष्टि
इस दृष्टि में साधक समाधिनिष्ठ सर्व संगों से रहित, आत्मप्रवृत्तियों में जागरूक तथा उत्तीर्णशयी होता है। वस्तुतः यह सर्वोत्तम तथा अन्तिम अवस्था है। इसमें परमतत्त्व का साक्षात्कार होता है। पातंजलयोगदर्शन में कथित योग के अन्तिम अंग असम्प्रज्ञात समाधि की यहां सिद्धि हो जाती है।
साधक सब इच्छाओं से मुक्त हो जाता है । मोक्ष तक की इच्छा उसे नहीं रहती क्योंकि जो भी इच्छाएं होती हैं वे सभी कषाय-मूलक होती हैं। इस प्रकार अनाचार तथा अतिचार से वर्जित होने के कारण साधक क्षपक अथवा उपशमश्रेणी द्वारा आत्मविकास करता है। आठवे गुणस्थान के द्वितीय चरण से योगी प्रगति करते हुए क्षपक श्रेणी द्वारा चार घाति कर्मों को नष्ट करके केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
१. सत्प्रवृत्तिपदं चेहाऽसंगानुष्ठानसंज्ञितम् ।
महापथप्रयाणं यदनागामिपदावहम् ॥ वही, श्लोक १७५ २. प्रशांतवाहितासंज्ञं विसंभागपरिक्षयः ।
शिववम॑ध्रुवाध्वेति योगिभिर्गीयते ह्यदः ॥ वही, श्लोक १७६ ३. समाधिनिष्ठा तु परा, तदासंगविवजिता ।
सात्मीकृतप्रवृत्तिश्च तदुत्तीर्णाशयेति च ॥ वही, श्लोक १७८ तथा मिला०-तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिवसमाधिः ॥ पा.यो. ३.३ निराचारपदोह्यस्यामतिचारविजितः । आरूढारोहणाभावगतितत्त्वस्य चेष्टितम् । यो दृ०, समु० १७६ द्वितीयाऽपूर्वकरणे मुख्योऽयमुपजायते केवलधीस्ततश्चास्य निःसपत्नासदोदया ॥ यो० दृ० समु० १८२
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