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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
इस प्रकार वह साधक से सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता हैं। इस क्रम में योगसन्यास नामक योग को प्राप्त करता है :- इसी से अन्तिम समय में शैलेशी अवस्था प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त करता है।
इन आठ दृष्टियों में पातञ्जलयोगदर्शन में वर्णित अष्टांग योग का भी समावेश हो जाता है। इसके साथ ही आचार्य उमास्वाति द्वारा बतलाए गए ज्ञान और सम्यक्चारित्र भी इनमें ही अन्तर्भूत हो जाते हैं।
यहां पर यह उल्लेख कर देना भी आवश्यक होगा कि जैन आगम ग्रंथों में वर्णित चौदह गुणस्थानों और आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा कृत इस वर्गीकरण में कोई भिन्नता नहीं है कारण कि प्रथम चार दृष्टियों में प्रथम गुणस्थान, पांचवीं-छठी दृष्टि में पांचवा-छठा गुणस्थान, सातवीं दृष्टि में सातवां और आठवां गुणस्थान तथा शेष ६ से १४ तक के गुणस्थानों का आठवीं दृष्टि में समावेश हो जाता है।
इसी प्रकार योगबिन्दु में उल्लिखित योग साधना के विकास की पांच भूमिकाएं भी इन्हीं गुणस्थानों अथवा आठ दृष्टियों में अन्तर्भूत हो जाती हैं। वे योगबिन्दु में वर्णित पांच भूमियां इस प्रकार हैं। (१) अध्यात्म
(४) समता (२) भावना
(५) वृत्तिसंक्षय (३) ध्यान इनका विस्तृत विश्लेषण आगे किया जायेगा।
(ख) योग का अधिकारी
योग के अधिकारी की चर्चा से पूर्व आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगी की विस्तृत चर्चा की है। उनके अनुसार योगी उसे कहते हैं जो अपने १. क्षीणदोषोऽथ सर्वत्र सर्वलब्धिफलान्वितः ।
परं परार्थं सम्पाय ततो योगान्तमश्नुते ।। वही, श्लोक १८५ २. अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसं यः।।
मोक्षेण योजनाद् योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् । यो०वि०, श्लोक ३१
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