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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन प्रतीत होते हैं, जिनसे वह मुक्त होकर चारित्र के विकास पर ही अपनी शक्ति केन्द्रित करता है और एक मात्र आत्मा को ही उपादेय मानता है। इसको उपमा रत्न की प्रभा से दी गयी है, जो देदीप्यमान, शान्त, स्थिर और सौम्य होती है।
कान्तादृष्टि
इसमें साधक को सम्यग्दर्शन अविच्छिन्न रूप से रहता है । जैसे कान्ता (पतिव्रता स्त्री) घर के सभी कार्य करते हुए भी हृदय में पति का स्मरण करतो रहती हैं, ऐसे ही कान्तादृष्टि का साधक दूसरी क्रियाएं करता हुआ भी सदैव आत्मानुभूति में निमग्न रहता है। चित्त परोपकार एवं सद्विचारों से ओतप्रोत होता है, जिसमे चित्त की सभी विफलताएं नष्ट हो जाती हैं।
इसमें साधक की धारणा और सुदृढ़ हो जाती हैं। पूर्व दृष्टियों में ग्रंथि का भेद हो जाने से साधक यहां अपूर्व चारित्र का विकास करता है। कषायवृत्ति उपशान्त हो जाती हैं तथा उसकी प्रत्येक क्रिया अहिमामय बन जाती है । सहिष्णुता के परिवर्धन से साधक क्षमाशील हो जाता है इससे वह सबका प्रियपात्र बन जाता है। इसकी उपमा नक्षत्रों के आलोक से दी गयी है जिससे कि वह शान्त स्थिर और चिरप्रकाशयुक्त हो जाता है। प्रभादृष्टि
इस दष्टि में साधक योग के सातवें अंग 'ध्यान' की साधना करता है इससे उसका चित्त एकाग हो जाता है। शरीर निरोग और कान्तिमान होता है। उसमें प्रतिपाति तथा शम गुणों का आविर्भाव हो जाता है।' १. एवं विवेकिनो धीराः प्रत्याहारय रास्तथा ।
___धर्मवोधापरित्याग्र-यत्नवन्तश्च तत्त्वतः ।। योगदृष्टि समु०, श्लोक १५८ २. कान्तायमेतन्येषां प्रीतये धारणा परा।
अतोऽत्र नान्यमुन्नित्यं मीमांसाऽस्ति हितोदया । वही, श्लोक १६२ ३. अस्यां तु धर्ममाहात्म्यात्समाचारविशु द्धितः।
प्रियो भवति भूतानां धर्मकाग्रमनास्तथा ॥ वही, श्लोक १६३ ४. ध्यानप्रिया प्रभावेन नास्यां रुगत एव हि
तत्त्वप्रतिपत्तियुता विशेषेण शमान्विता ॥ योगदृष्टि समु० श्लोक १७० ___ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only
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