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116 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना की समीक्षात्मक अध्ययन
जड़ और चेतन जो मुख्य तत्त्व है उनको, उनके यथार्थरूप में देखना अथवा उनके प्रति स्व-स्वरूप में दढ विश्वास का होना ही सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन योग साधना के विकास के लिए उत्तम एवं मनोज्ञ साधन हैं।
इसका महत्त्व बताते हुए जैनागम आचारांगसूत्र में तो यहां तक कहा गया हैं कि-सम्यग्दृष्टि साधक पापों का बन्ध नहीं करता ।। कहीं सम्यग्दर्शन साधक को स्वतः (जन्मान्तरीय उत्तम संस्कारों के प्रभाव से अपने आप ही) हो जाता है और किसी को परतः (सत् शास्त्रों के स्वाध्याय तथा सद्गुरुओं की सत्संगति से) प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन प्राप्त साधक के पांच लक्षण बतलाए गए हैं वे हैं-(१) शम, (२) संवेग, (३) निर्वेद, (४) अनुकम्पा और (५) आस्तिक्य । (१) शम
उदय में आए हुए कषाय को शान्त करना शम कहलाता है।
(२) संवेग
मोक्ष विषयक तीव्र अभिलाषा का उत्पन्न होना संवेग है। (३) निर्वेद
सांसारिक विषय भोगों के प्रति विरक्ति अर्थात् उनको हेय समझ कर उनमें उपेक्षाभाव का उदित होना निर्वेद है।
(४) अनुकम्पा - दुःखी जीवों पर दया-भाव रखना, निस्वार्थभाव से उनके दुःख दूर करने की इच्छा और तदनुसार प्रत्यन आदि करना अनुकम्पा है।
१. समत्तदसणिण करेह पावं । आचाराङ्ग १.३.२ २. तन्निसर्गात अधिगमाद्वा । तत्त्वार्थसूत्र १.३ ३. कृपाप्रशमसंवेगनिर्वेदास्तिक्यलक्षणः गुणा भवन्तु यच्चित्ते स स्यात् सम्यक्त्व
भूषितः । गुणस्थान क्रमारोह, श्लोक २६
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