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योगबिन्दु की विषय वस्तु
115 कलाप जानने की शक्ति जब प्राप्त हो जाती है तब वह भूमि साधुमती कहलाती है। (१०) धर्ममेघा . सर्वज्ञत्व उपलब्धि की अवस्था में साधक धर्ममेघा की भूमि में अवस्थित होता है । महायान की दृष्टि से इसी भूमि में पहुंचे हुए साधक को तथागत भी कहा जाता हैं ।
इस प्रकार बौद्धयोग के अन्तर्गत योग साधना के विकास को अज्ञानावस्था के ऋमिक ह्रास के सन्दर्भ में देखा जाता है क्योंकि अज्ञान अवस्था को त्याग कर ही ज्ञानप्राप्ति सम्भव है, जो निर्वाणलाभ में अभीष्ट है। ३. जैन योगसाधना का विकास
जैन योग साधना की आधार शिला सम्यग्दर्शन की उपलब्धि है और इसकी चरम परिणति मुक्ति में होती है। इस प्रकार जैन योगसाधना का विकास क्रम हमें तीन श्रेणियों में उपलब्ध होता हैं(१) सम्यग्दर्शन, (२) सम्यग्ज्ञान और (३) सम्यग्चारित्र ।। सम्यकदर्शन
दर्शन शब्द जैन आगमों में दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । इसका एक अर्थ हैं-~-देखना अर्थात् अनाकार ज्ञान और दूसरा अर्थ हैं-श्रद्धा । केवल श्रद्धा ही साधना में कार्यकारी नहीं होती क्योंकि यह मिथ्या भी हो सकती है। यहां श्रद्धा का सम्यक् होना आवश्यक है। इसी कारण आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वों के प्रति साधक के यथार्थ श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन बतलाया है-तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।'
१. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थसूत्र १.१ २. साकारज्ञानं अनाकारं दर्शनम् । तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० ८२ ३. (क) तत्त्वार्थसूत्र १.२
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र, २८.१५ (ग) स्थानांगसूत्रवृत्ति (अभयदेवसूरि.) स्थान १
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