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114 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन है। इसके साथ ही इसमें पहले किए हुए संकल्प के अनुरूप अन्य प्राणियों को दुःख मुक्त करने का प्रयत्न भी किया जाता है । (४) अचिष्मती
प्राप्त गुणों को स्थिर करने के लिए तथा और गुण प्राप्त करने के लिए इस भूमिका परिपालन आवश्यक है। किसी भी प्रकार के दोषों का सेवन न हो और जितने में वीर्य पारमिता की सिद्धि हो उसे अचिष्मती भूमिका बतलाया गया है। (५) सुदुर्जया
सुदर्जया ऐसे ध्यान पारमिता की प्राप्ति को कहते हैं, जिसमें करुणावृत्ति का विशेषकर अभिवर्द्धन और चार आर्यसत्यों का स्पष्ट भान होता है। (६) अभिमुखी
इनमें महाकरुणा के द्वारा बौधिसत्व आगे बढ़ता हुआ अर्हत्व प्राप्त करता है और दश पारमिताओं में से विशेष रूप से प्रज्ञापारमिता उसे यहां पूर्ण करना होती है। (७) दूरंगमा
सभी पारमिताओं को पूर्णरूप से साधने पर उत्पन्न होने वाली स्थिति का नाम दूरंगमा है।
(८) अचला
साधक इस स्थिति में शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है। उसे सांसारिक प्रश्नों का स्पष्ट एवं प्रबुद्धज्ञान रखना पड़ता है जिससे कि उनसे किसी भी प्रकार विचलित होने की सम्भावना न हो। (९) साधुमती
प्रत्येक जीव के मार्गदर्शन के लिए उस साधक को सत्त्व के कार्य
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