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योगविन्दु की विषय वस्तु (५) आस्तिक्य
सर्वज्ञ कथित तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा न करना तथा आत्मा एवं लोकसत्ता में पूर्ण विश्वास करना आस्तिक्य है।
आस्तिक्य गुणधारी साधक आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी होता है। अर्थात् इन विषयों के बारे में जैसा सर्वज्ञ ने कहा हैं, वैसा ही यथातथ्य विश्वास करता हैं।
विशुद्ध सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए उसे २५ मलदोषों का त्याग करना आवश्यक है। सम्यग्दर्शन का अपर नाम सम्यग्दृष्टि भी है। दृष्टि उसको कहते हैं जिससे समीचीन श्रद्धा के साथ बोध हो और असत् प्रवृत्तियों का क्षय होकर सत् प्रवृत्तियां उद्भूत हों।
योगदष्टि को आधार बनाकर आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगसाधना के विकास को आठ दृष्टियों में विभक्त किया है। ये आठ दृष्टियां हैं
(१) मित्रा (२) तारा (३) बला (४) दीपा (५) स्थिरा (६) कान्ता (७) प्रभा और (८) पराः
इन दृष्टियों में प्रथम चार आद्य दृष्टियां सम्यग्दृष्टि में अन्तर्भूत हो जाती हैं क्योंकि इनमें आत्मा की प्रवत्ति आत्मविकास की ओर न होकर संसाराभिमुख रहती है अर्थात् जीव का उत्थान एवं पतन होता रहता है। शेष चार दष्टियां योगदृष्टि में समाहित हैं क्योंकि इनमें साधक की दष्टि विकासोन्मख होती है। पांचवी दृष्टि के बाद तो साधक सर्वथा उन्नतिशील बना रहता है, उनके पतन की सम्भावना ही नहीं रहती। इस प्रकार ओद्यदृष्टि, असत्दृष्टि और योगदृष्टि ये सदृष्टियां मानी १. जे आयावई, लोयावई, कभ्मावई, किरियावई । आचारांग, २.१.५ २. विशेष के लिए दे० जैन योग सिद्धान्त और साधना, पृ० १०६ ३. सच्छद्धासंगतो बोधो दृष्टिरित्यभिधीयते ।
असत्प्रवृतिव्याघातात् सत्प्रवृत्तिपदावहः ॥ योग दृ० स०, श्लोक १७ ४. मित्राताराबला दीप्रास्थिरा कान्ताप्रभा परा।
नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधता । वही, श्लोक १३
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