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योगबिन्दु की विषय वस्तु
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(१) क्षिप्त
चित्त प्रकृति का सात्त्विक परिणाम होने से प्रख्यापन (ज्ञान) स्वरूप है फिर भी जिस काल में सत्त्वगुण की न्यूनता होती है उस काल में वह तमोगुण से सम्बद्ध हो जाता है। इसी काल में शब्द, विषय आदि तथा अणिमा-महिमा आदि ऐश्वर्य को ही त्रिय जानकर उन्हीं में आसक्त होने से चित्त विह्वल हो जाता है।, इसी अवस्था का नाम क्षिप्त है। इस तरह क्षिप्त रज प्रधान है । इस अवस्था में तमोगुण तथा सत्त्व गुण का निरोध रहता है।
(२) मूढ
इस अवस्था में रजोगुण का प्रभाव कम होता है और तमोगुण का आधिक्य बढ़ जाता है, जिससे मोह के आवरण से साधकों में कर्त्तव्यअकर्तव्य का बोध नहीं हो पाता ।
(३) विक्षिप्त
जब चित्त में तमोगुण शिथिल होता है और रजोगुण का आंशिक रूप से प्राबल्य बना रहता है तब सत्त्वगण के उद्रक से चित्त निष्कलंक दर्पण के समान प्रकाशित होकर एकाग्रता की ओर बढ़ता है किन्तु चित्त की यह स्थिरता स्थायी नहीं होती कारण कि योगविघ्नों के कारण शीघ्र ही चित्त चंचलता से अभिभूत हो जाता है, फिर भी पूर्व की अपेक्षा इस अवस्था में चित्त योग-साधना की ओर निरन्तर अभिमुख होता जाता है।
यद्यपि ये तीनों भूमिकाएं योगसाधना के विकास में विशेष उपयोगी नहीं हैं तब भी आंशिक एवं आपेक्षिक रूप में वृत्तियों का निरोध इन अवस्थाओं में बना रहता है । बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के द्वारा चित्त का निरन्तर उग्र सम्पर्क बना रहना 'व्युत्थान' दशा है, जो योग १. प्रख्यारूपं हि चित्तसत्त्वं रजस्तमोभ्याँ संसृष्टमैश्वर्य विषयप्रियं भवति ।
पा० यो०, १.२ पर भाष्य व्युत्थान शब्द बौद्ध साधना में भी आता है। विस्तृत अध्ययन से लिए दे० अभिप्र०, पृ० १४७
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