________________
104
योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
भक्ति अथवा ईश्वर में दत्तचित्तनिष्ठा का सिद्धान्त उपनिषदों में विस्तार से मिलता है जबकि ऋग्वेद संहिता में केवल भक्त और अभक्त शब्द मिलते हैं । इनका अर्थ सायणाचार्य ने सेवामान और असेवामान अर्थात् पूजने वाला और न पूजने वाला किया है।
षड्दर्शनों में पातञ्जलयोगशास्त्र भक्ति के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखता है। उसका परम लश्य है-जीवन के निजी स्वरूप का पहचानना । वहां कहा गया है कि ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं अपितु वह केवल योग साधना में मार्गदर्शन करने वाला परम गुरुतुल्य है। इससे पूर्व के योग साधना के विकास को देखने पर ज्ञात होता हैं कि योगवासिष्ठ में भी योग साधना के विकास क्रम का वर्णन सर्वाङ्गीण और समुचित ढंग से हुआ है । इस दृष्टि से योगदर्शन तथा योगवासिष्ठ में वर्णित योग-साधना के विकास क्रम को समझ लेना चाहिए।
पातञ्जल योगदर्शन में चूंकि चित्त की वृत्तियों का निरोध ही 'योग' है । निरोध का अर्थ यहां कोई नया अवरोध खड़ा करना नहीं है अपितु विषयों का चिन्तन एवं उनमें आसक्तिपूर्वक प्रवृति का न होने देना ही निरोध है।
. योगदर्शन में चित्त की पांच वृत्तियों अथवा भूमिकाओं का भो उल्लेख हुआ है जिनमें एक के बाद दूसरी अवस्था अथवा भूमिका(वृत्ति) क्रमश: चित्तशुद्धि की परिधि को बढ़ाती जाती है। वे पांच भूमिकाएं निम्नलिखित हैं--(१) क्षिप्त, (२) मूढ़, (३) विक्षिप्त, (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध ।
इनमें प्रथम तीन अर्थात् क्षिप्त, मूढ़ और विक्षित अज्ञान (अविकाश) की होने के कारण योगसाधना में उपयोगी नहीं है। दूसरे, क्षिप्तावस्था में रजोगुण के प्राधान्य के कारण साधक के चित्त की चंचलता बहुत अधिक होती है । अतः इन्हें अग्राह्य माना गया है।
१. दे० भक्ति आन्दोलन का अध्ययन, पृ० १७ २. क्षिप्तं मुढं विक्षिप्तमेकाग्रनिरुद्धमिति चित्तभूमयः ।
पा० यो०. व्यास भाष्य, १.१
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org