SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 106 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन की प्रतिपक्षीभूत है । इसीलिए इनकी परिगणना योग की कोटि में नहीं होती। अतः इन्हें अविकसित अवस्था भी कहा जाता है। (४) एकाग्र जब चित्त इन्द्रियद्वार से बाह्य विषयों की ओर प्रवृत्त न होकर एकमात्र अध्यात्म चिन्तन में निरत रहता है। तब यही चित्त की एकाग्र भमिका कही जाती है। इस अवस्था में सत्त्वगुण शेष दो गणों को अभिभूत कर देता है, जिससे साधक अविद्या आदि क्लेश तथा कर्मबन्धनों को क्षीण करता है और चित्त को ध्येयवस्तु में एकाग्र करके निश्चल (स्थिर) बनाता है। चित्त की इस अवस्था को सम्प्रज्ञातयोग अथवा सम्प्रज्ञातसमाधि भी कहते हैं। यहां से साधक असम्प्रज्ञात समाधि की ओर आगे बढ़ता है । इस एकाग्र अवस्था में केवल संस्कार शेष रहते हैं। (५) निरुद्ध एकाग्र अथवा सम्प्रज्ञातसमाधि की दशा में साधक आत्मा और चित्त के भेद का साक्षात्कार कर लेता है । वह इस तथ्य को स्पष्टतया जान लेता है कि प्राप्त विषयों के अनुरूप चित्त का परिणमन होता है, आत्मा का नहीं होता। ऐसी दशा में चित्तवृत्तियों का पूर्ण निरोध होने से साधक के संस्कार समुह भी नष्ट हो जाते हैं। इस अवस्था में कर्माशय दग्ध हो जाते हैं और उनका बीजभाव अन्तहित हो जाता है। इसी कारण यह अवस्था निर्बीज समाधि कहलाती है। यहां योगसाधना का पूर्ण विकास हो जाता है जो कि कैवल्य की उपलब्धि में परम उपादय होता है। योगवासिष्ठ के अनुसार योगसाधना के अन्तर्गत आत्म विकास की दो श्रेणियां मानी गई हैं--- (१) अविकासावस्था एवं (२) विकासावस्था १. पातञ्जलयोगसूत्र १.१७ तथा विशेष के लिए देखिए (शास्त्री) पातञ्जलयोगदर्शन, पृ०६ २. पातञ्जलयोगदर्शन, १.५१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy