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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
मोदी ने इसका सम्पादन किया था।
____ अभयदेवसूरि ने इस ग्रंथ का एक पद्य पंचासग की टीका में उद्धृत किया है जिससे इसके लेखन की प्राथमिकता सिद्ध होती है। लावण्यविजय ने भी अपनी कृति द्रव्यसप्तति की (वि. सं. १७४४) स्वोपज्ञ टीका में श्रावकधर्मससास के १४४ पद्यों को उद्धृत किया है।
जेठालाल शास्त्री ने इसका टीका सहित गजराती में वि. सं. १५४८ में सम्पादन एवं भाषान्तर किया है जो प्रकाशित है। कुछ विद्वानों ने इस रचना को हरिभद्रसूरि द्वारा रचित होना स्वीकृत नहीं किया क्योंकि इसकी कुछ हस्तलिखित प्रतियों के अन्त में श्रीउमास्वातो वाचककृता सावयपण्णती सम्मता' लिखा मिलता है। किन्तु आधुनिक विद्वानों की खोज एवं पुष्ट प्रमाणों से तथा तत्त्वार्थसूत्र एवं श्रावकधर्मसमास दोनों के विषय एवं शैली में भिन्नता होने से अब यह रचना आचार्य हरिभद्रसूरिकृत ही मानी जाती है। (१६) हिंसाष्टक
आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा लिखी गई प्रस्तुत कृति का स्वोपज्ञ अवचूरि के साथ सन् १९२४ में प्रकाशन हुआ था। आठ श्लोक प्रमाण इस ग्रंथ का विषय हिंसा का सम्यक प्रतिपादन करना है। आचार्यश्री ने इसमें संसारियों को हिंसा से दूर रहने की प्रवल प्रेरणा दी है।.. .
दशवकालिक की टीका में इसका उल्लेख मिलता है। हिंसाष्टक में सुन्दोपसुन्द, अनुयोगद्वारवृत्ति का उल्लेख किया गया है। साथ ही इसमें हेमचन्द्रसूरि का भी जिक्र किया गया है जो सम्भवतः हरिभद्र से पूर्ववर्ती कोई आचार्य ही रहे होंगे। (२०) स्याद्वादकुचोदपरिहार
यद्यपि यह रचना अप्राप्त है। फिर भी हरिभद्रसूरि की दृष्टि में स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों में कोई भिन्नता नहीं है। इसी जैन
१. दे. हरिभद्र सूरि, पृ० १८० २. वही, पृ० १८३-१८५ ३. दे० समदर्शी आचार्य हरिभद्रसूरि, पृ० १०६
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