________________
योगविन्दु के रचयिता : आचार्य हरिभद्रसूरि
93
हैं। शुभतिलकलोले ने इस पर एक नया स्तोत्र रचा है। जो प्रथम जिनस्तवन के नाम से प्रकाशित है।। ज्ञानविमलसूरि ने इस पर संस्कृत टीका लिखी है। एक अन्य अज्ञात लेखक की टीका का भी उल्लेख मिलता है। हिन्दी, गुजराती अनुवाद भी इसका प्रकाशित हुआ है।
(१७) श्रावकधर्म
प्राकृत में इसका सावगधम्म हो जाता है। कुछ आचार्यों के अनुसार इसका श्रावकधर्म या श्रावकधर्मतन्त्र नाम भी है, किन्तु कुछ हस्तलिखित प्रतियों में इसका नाम श्रावकविधिप्रकरण दिया गया है। जो भी हो, निस्सन्देह उपर्युक्त रचना में श्रावकों के धर्म पर सम्यक्तया विचार किया गया है। इनमें प्रमुख रूप से सम्यक्त्व, द्वादशव्रत, सल्लेखना आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
संघवी इसकी भाषा प्राकृत मानते हैं जबकि डा० शास्त्री इसे संस्कृत में रचित बतलाते हैं। इसमें १२० पद्य हैं। मानदेवसूरि ने इस पर टीका लिखी है। इस रचना की अपनी एक विशेषता है और वह है इसका अकारादि क्रम में निबद्ध होना। गुजरातो अनुवाद एवं संस्कत छाया के साथ प्रकाशित इस ग्रंथ का नाम श्रावकविधिप्रकरण भी है।
(१८) श्रावकधर्मसमास'
इसका दूसरा नाम श्रावकधर्मप्रज्ञप्ति भी है। इस ग्रंथ में ४०३ पद्य हैं जिनमें श्रावकों के व्रतों, अतिचारों तथा पन्द्रह कर्मादानों का सरल निरूपण किया गया हैं। १६०६ में सर्वप्रथम इसका गुजराती में भाषान्तर किया गया था और वि. सं. १८६१ में केशवलाल प्रेमचन्द
१. वही, पृ० १६५ पर पाद टिप्पण-४ २. वही, पृ० १६६-६७ ३. वही, पृ० १७६ ४. दे० हरि० प्रा० क० सा० आ० परि०, पृ० ५३ ५. हरिभद्र सूरि, पृ० १७६ पर पाद टिप्पण ६. दे० वही, पृ० १८० ७. विस्तृत अध्ययन के लिए दे० वही, पृ० १५३
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org