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90 . योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
यह आठ अध्यायों में विभक्त गद्यात्मक कृति है। इसकी शैली सूत्रात्मक है फिर भी इसमें गाम्भीर्य झलकता है । जैन दृष्टि से धर्म का यथार्थ स्वरूप जैसे-श्रावकव्रत, उनके अतिचार, शिक्षाव्रत, दीक्षा, दीक्षाधिकारी और सिद्धों के स्वरूप का प्रतिपादन करना इसका विषय हैं। दीक्षार्थी के १६ गुणों के प्रतिपादन में संवादात्मकशैली इसमें अनुपम बन पड़ी है।
धर्मबिन्दु पर मुनिचन्द्रसूरि ने ३००० श्लोक प्रमाण विस्तृत संस्कृत टीका लिखी है जो समूल ताड़पत्रों पर प्रकाशित है। इसका समय ११८१ वि० सं० जाना जाता है। इसका इटालियन व गुजराती अनुवाद भी मिलता है। (१३) पंचवत्युग
पंचवत्थुग यह पद इसको प्राकृत भाषा में रचा गया सिद्ध करता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस पर स्वयं संस्कृत में टीका लिखी है। इसका सर्वप्रथम प्रकाशन १९२७ में हुआ था। इसमें कुल १७१४ गाथाएं पायी जाती हैं किन्तु टीका के अन्तर्गत ४०४० पद्य मिलते हैं। इस रचना पर सम्भवः बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तरनिकाय की शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
यह निम्नलिखित पांच भागों में विभक्त हैं१. दीक्षा विधि २. जैन श्रवणदिनचर्या ३. उपस्थान ४. श्रमणों के उपकरण और ५. तपश्चर्या, अनुज्ञा एवं सल्लेखना
इसके अतिरिक्त पंच स्थावर जीव, धर्म के अंग, तप और उसके भेदाभेदों पर प्रकाश डाला गया है । आचार्य यशोविजय जी द्वारा इसे
१. दे० हरिभद्र सूरि, पृ० १०६ २. वही, पृ० ११८-१२०
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