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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
कर्तृत्व, सांख्य सम्मत प्रकृति-पुरुषवाद, बौद्धों के क्षणिकवाद में बाधक स्मरण आदि की अनुपपत्ति दिखाकर बाह्यार्थवाद का निराकरण भी किया गया है और अन्त में स्याद्वाद का स्वरूप मण्डन करते हुए वेदान्तदर्शन के अद्वैत्तसिद्धान्त का विस्तार से खण्डन किया गया है। इसके साथ ही मोक्ष मार्ग की भी मोमांसा दृष्टव्य है। सर्वज्ञत्व, स्त्रीमुक्ति तथा शब्द एवं अर्थ का परस्पर सम्बन्ध आदि पर चर्चा भी प्रस्तुत ग्रंथ का विषय है। वर्तमान में इसका सटीक हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध होता है।
(६) सर्वज्ञसिदि
इस रचना में आचार्यश्री ने सर्वज्ञ को अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने इसके निरुक्ति परक अर्थ पर प्रकाश डालते हुए सर्वज्ञवादी दर्शनों की मान्यता को पूर्व पक्ष में प्रस्तुत किया है और फिर जैन मतानुसार उनका खण्डन भी किया है। इसमें नामकरण का आधार कुछ विद्वान् बौद्धाचार्यशान्तिरक्षित अथवा रत्नकीति द्वारा रचित 'सर्वज्ञसिद्धि कारिका' और 'सर्वज्ञसिद्धि संक्षेप' को बतलाते हैं। जबकि प्रकृत में ऐसा है नहीं, क्योंकि जैनों का समस्त आचार-विचार आगम ग्रंथों में उपलब्ध है जो सर्वज्ञप्रणीत है। इसी कारण जैनदर्शन में सर्वज्ञत्व पर खुलकर विस्तार से चिन्तन एवं मनन किया गया है।
सर्वज्ञसिद्धि गद्य-पद्यात्मक रचना है। इसके अन्त में विरह' पद का उल्लेख है। अनेकान्तजयपताका नामक ग्रंथ में इसका दो बार उल्लेख मिलने से विद्वानों का मत है कि यह कृति अनेकान्तजयपताका से पहले ही लिखी जा चुकी थी। जो भी हो किन्तु निस्सन्देह संस्कृत में रचित प्रस्तुत ग्रंथ बड़ा ही उपादेय एवं मननीय है।
(१०) अष्टक प्रकरण
इस ग्रंथ में ऋग्वेद एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण को आधार बनाकर लिखे हुए बत्तीस अष्टक मिलते हैं । यह आचार्यश्री की प्रसिद्ध रचना संस्कृत में निबद्ध है। छठे अष्टक को छोड़कर बाकी प्रत्येक अष्टक में आठ-आठ पद्य हैं । पद्यों की कुल संख्या २५५ है । इस पर जिनेश्वरसूरि की टीका भी मिलती है। जिसका सारांश गुजराती में १६वीं शदी में बम्बई से १. दे० हरिभद्रसूरि, पृ० १७७
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