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84 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन उल्लेख गर्वावली में मिलता है। इस ग्रन्थ का आधार सरि ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की कृति सन्मति तर्क या सन्मति प्रकरण के तीसरे और छठे काण्ड को बनाया है।
जैसा कि ग्रंथ के शीर्षक से यह बिल्कुल ही स्पष्ट है कि आचार्य ने इस रचना में जैनदर्शन की आधारशिलाभूत सिद्धान्त 'अनेकान्तवाद' को विषय वस्तु के रूप में ग्रहण किया है। ग्रंथ के पारायण करने से यह भी ज्ञात होता है कि यह रचना विशेष आचार्य के जीवन की प्रौढावस्था में लिखी गयी थी।
ग्रंथ की शैली एवं भाषा तत्कालीन प्रचलित परिस्थितियों के अनुरूप सरस, सरल एवं सुबोध्य संस्कृत है। प्रस्तुत ग्रंथ में छः अधिकार हैं, जिनमें क्रमश: सदसदरूपवस्तु - नित्यानित्यवस्तु-सामान्य-विशेषवाद, अभिलाख्यानभिलाख्य, योगाचारमतवाद, एवं मुक्तिवाद आदि विषयों पर क्रमशः प्रकाश डाला गया है।
इन विषयों के आधार पर यह कहना गलत न होगा कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने उक्त ग्रंथ में बौद्ध दर्शन के सिद्धान्तों को तर्क की कसौटी पर कसकर जैनदर्शन की दृष्टि से उनका सम्यक् खण्डन एवं प्रतिपादन के फलस्वरूप लिखा है । स्वयं आचार्य ने इस पर व्याख्या भी लिखी है । उदाहरणों का बहुल प्रयोग मिलता है । यह ८२५०२ श्लोक प्रमाण है।
आचार्यश्री ने बाद में इस पर अनेकान्तजय पताकोद्योतदीपिका नामक टीका भी लिखी है, जिस पर बाद के आचार्य मुनिचन्द्र सूरि ने 'वृत्ति टिप्पण' लिखा है। यह हरिभद्रसूरि की बहुत ही प्रसिद्ध कृति है।' (२) अनेकान्तवादप्रवेश ___यह कृति संस्कृत भाषा में निबद्ध गद्यात्मक शैली में लिखी गई है। इसमें ६२०२ गाथाएं हैं। इसकी रचना का एक मात्र उद्देश्य जैनधर्म के
१. हरिभद्रसूरि रचिता श्रीमदनेकान्तजयपताकाद्याः ।
ग्रन्थनगाबिधुधानामप्यधुना दुर्गमा येऽत्र ।। गुविली, ६८ २, यह कृति टीका साहित्य वृत्ति टिप्पण के साथ सन् १९५० और १६५७ में
दो खण्डों में गायकवाड पौर्वात्थ ग्रन्थमाला से प्रकाशित हुई है।
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