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योगबिन्दु के रचयिता : आचार्य हरिभद्रसुरि आधारभूत सिद्धान्त अनेकान्तवाद को और अधिक सरल तथा स्पष्ट करना है। इसे अनेकान्त जयपताका की 'स्वोपज्ञवृत्ति भी कहा जा सकता है' फिर भी यह अपने में परिपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ में जिन विषयों पर चर्चा की गई है—वे हैं-(१) सदसदवाद, (२) नित्यानित्यवाद, (३) सामान्यविशेषवाद, (४) अभिलाख्यानभिलाख्यवाद
और (५) मोक्षवाद । (३) अनेकान्तसिद्धि
संस्कृत भाषा में निबद्ध यह अनेकान्तसिद्धि नामक कृति अनुपलब्ध है। इसका उल्लेख मात्र अनेकान्तजयपताका की व्याख्या में उपलब्ध होता है। इसकी विषय वस्तु इसके शीर्षक से ही स्पष्ट है।
(४) द्विजवदनचपेटा
विवादास्पद इस कृति का शीर्षक ही बड़ा रोचक है। इसका अर्थ है-'ब्राह्मण के मुख पर तमाचा' । अभिप्राय यह है कि प्रस्तुत ग्रंथ में वैदिक ब्राह्मणीय कर्मकाण्ड में आगत बाह्याडम्बर पर तेज प्रहार किया गया है। इसी कारण इसका अपरनाम 'वेदांकुश' भी मिलता है ।
___ कतिपय विद्वानों का मत है कि इस ग्रंथ की रचना हेमचन्द्रसूरि ने की थी जबकि कुछ विद्वान् इसे धर्मकोति द्वारा लिखी हुई बतलाते हैं । परन्तु डा० नेमिचन्द्व शास्त्रो के मत में इसके रचयिता हरिभद्रसूरि ही हैं। (५) धर्मसंग्रहणी
प्रस्तुत कृति प्राकृत भाषा में बनाये गए १६३६ श्लोकों का संग्रह है। द्रव्यानुयोग से सम्बन्धित है। शैली तर्क प्रधान है । प्रारम्भिक १. दे० हरिभद्रसूरि, पृ. ६६ २. दे० हरि० प्रा० क० सा० आ परि०, पृ० ५३ ३. दे० हरिभद्रसूरि, पृ० ६६ ४. दे० वही ५. दे० हरि० प्रा० क० सा० आ० परि०, पृ० ५३ ६. दे० हरिप्रा० क० सा०, आ० परि०, पृ० ५३
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