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योगविन्दु के रचयिता : आचार्य हरिभद्रसूरि
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किया है। वह है रोगी, अनाथ अथवा निर्धन आदि निस्सहाय वर्ग की सहायता करना, परन्तु वह सहायता ऐसी नहीं होनी चाहिए कि जिससे अपने आश्रित जनों की उपेक्षा होने लगे ।।
आध्यात्मिक अथवा लोकोत्तर धर्म के साथ ऐसे अनेकविध लौकिक कर्तव्यों को संकलित करके हरिभद्रसूरि ने जैन परम्परानुसार वणित प्रवर्तक धर्म का महत्त्व जिस विशुद्धता और युक्ति युक्त ढंग से प्रस्तुत किया है वह निवृत्ति प्रधान जैन परम्परा में टूटती कड़ी का सन्धान करती है।
इसके अतिरिक्त हरिभद्रसूरि के ग्रंथों में वर्णित अध्यात्म प्रवाह, लोकमंगल की सतत कामना, धर्म श्रद्धा का परिवर्धन, कुशल उपदेशात्मकता आदि अनेक विशेषताएं उनके व्यक्तित्व की परिचायक हैं।
आचार्य हरिभद्रसूरि के व्यक्तित्व में जहां अनेक विशेषताएं हैं, वहां मानव सुलभ कुछ दुर्बलताएं भी हैं जो उनके ग्रंथों में देखी जा सकती हैं जैसे धूर्ताख्यान में व्यंग्य प्रकिया।
यह सत्य है कि सभी सम्प्रदाय के पुराणों में कुछ-कुछ अद्भुत और आश्चर्य जनक बातें पायी जाती हैं। मनुष्य का यह स्वभाव है कि उसे अपने सम्प्रदाय की बातें तो अच्छी लगती हैं और दूसरे सम्प्रदाय की बाते खटकती हैं । हरिभद्रसूरि इस दुर्बलता से कहां तक बच सके हैं यह तो विद्वान् ही समझ सकते हैं।
उन्होंने इन्हीं मानवीय प्रवृत्ति के कारण वैदिक पुराणों की असंगत अस्वाभाविक मान्यताओं पर बड़ा ही तीक्ष्ण प्रहार कर उनके निराकरण करने का प्रयास किया है जो कहां तक औचित्य रखता है । इसका निर्णय विद्वान् पाठक स्वयं करेंगे। (घ) हरिभद्रसूरि का कृतित्व
जैन योगी, प्रख्यात तार्किक, विचक्षण प्रतिभा के जाने-माने विद्वान् आचार्य हरिभद्रसूरि एक ऐसे सांध्यकाल में आविर्भूत हुए थे जबकि १. चारिसंजीवनीचारन्याय एष सतां मतः ।
नान्यथाऽत्रेष्ट सिद्धिः स्याद् विशेषणादिकर्मणाम् ॥ वही; श्लोक ११६
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