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________________ 76 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में ईश्वर को मानता ही नहीं। योग परम्परा में जब ईश्वर का विचार उपस्थित होता है तो वह सृष्टि के कर्ता-धर्ता के रूप में नहीं, बल्कि साधना में अनुग्राहक के रूप में आता है। कई साधक ऐसी अनन्यभक्ति से साधना करने के लिए प्रेरित होते हैं जिससे स्वतन्त्र ईश्वर का अनुग्रह ही उनकी भक्ति में कारण दृष्टिगोचर है। इस बात को लेकर हरिभद्रसूरि ने अपना दृष्टिकोण उपस्थित करते हुए कहा है कि महेश का अनुग्रह मानें तो भी साधक पात्र में अनुग्रह प्राप्त करने की योग्यता माननी ही पड़ेगी। वैसी योग्यता के बिना महेश का अनुग्रह भी फलप्रद नहीं हो सकता। इससे सिद्ध होता है कि पात्र योग्यता मुख्य है। जब साधक में योग्यता आती है तभी वह अनुग्रह का अधिकारी भी बनता है। इसके अभाव में ईश्वर के अनुग्रह को मानने पर या तो सभी को अनग्रह का पात्र मानना पड़ेगा, या फिर किसी को भी नहीं। अब योग्यता को आधार मानने पर प्रश्न होता है कि ईश्वर कोई अनादि मुक्त, स्वतन्त्र व्यक्ति है या स्वप्रयत्न बल से परिपूर्ण हुआ कोई अनादि व्यक्ति विशेष ? हरिभद्ररि कहते हैं कि अनादि मुक्त ऐसे कर्ता ईश्वर की सिद्धि तर्क से होना सम्भव नहीं है फिर भी प्रयत्न सिद्ध आत्मा को परमात्मा मानने में किसी आध्यात्मिक को आपत्ति नहीं हो सकती। अतः प्रयत्न सिद्ध वीतराग की अनन्यभक्ति द्वारा जो गणविकास किया जाता है, उसे कोई ईश्वर का अनुग्रह माने तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है। ___ आचार्य हरिभद्रसूरि ने गुरुओं एवं देवों के प्रति भक्तिभावना के अतिरिक्त दूसरे एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक कर्त्तव्य के प्रति भी उद्बोधन १. दे० भारतीय तत्त्वविद्या, पु० १०६-१११ २. विशेष चास्य मन्यन्ते ईश्वरानुग्रहादिति। प्रधानपरिणामात् तु तथाऽन्ये तत्त्ववादिनः ।। योगबिन्दु, श्लोक २६५ अनादिशुद्ध इत्यादिर्यश्च भेदोऽस्य कल्प्यते । तत्तत्तन्त्रानुसारेण मन्ये सोऽपि निरर्थकः ॥ योगबिन्दु, श्लोक ३०३ ४. गुणप्रकर्षरूपो यत् सर्वैर्वन्धस्तथेष्यते । देवतातिशयः कश्चित्स्तवादेः फलदस्तथा ॥ वही, श्लोक २६८ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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