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________________ योगबिन्दु के रचयिता : आचार्य हरिभद्रसूरि 75 (ग) तीसरा यह कि देश-काल अवस्था आदि परिस्थिति भेद को लेकर महापुरुष भिन्न-भिन्न दष्टियों से अथवा अपेक्षा विशेष से भिन्न-भिन्न उपदेश देते हैं किन्तु मूल में वह एक ही होता है । यही हरिभद्रसूरि की समन्वयवृत्ति है। विश्वसर्जन के कारण के रूप में 'क्या मानना' इस विषय में अनेक प्रवाद पुरातन काल से प्रचलित हैं। काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत-चैतन्य और पुरुष (ब्रह्म) आदि तत्त्वों में से कोई एक को, तो कोई दूसरे को कारण मानता है। ये प्रवाद श्वेताश्वतर उपनिषद में तो निर्दिष्ट हैं ही किन्तु साथ ही महाभारत' आदि में भी इनका निर्देश है। सिद्धसेन दिवाकर ने इन प्रवादों का समन्वय करके सबकी गणना सामग्री के रूप में कारण कोटि में की है। परन्तु ये सभी चर्चाएं सष्टि के कार्य को लक्ष्य में रखकर हुई हैं जिन्हें हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु में स्थान तो दिया है और वह भी साधना की दृष्टि से ही। उन्होंने अन्त में सामग्री कारणवाद को स्वीकार करके कहा है कि ये सभी वाद एकान्तिक हैं, परन्तु साधना की फल सिद्धि में काल, स्वभाव, नियति, दैव, पुरुषार्थ आदि सभी तत्त्वों की अपेक्षा विशेष से अपना स्थान है। इस तरह उन्होंने इन सभी आपेक्षिक दष्टियों का विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। दार्शनिक परम्परा में विश्व के स्रष्टा, संहर्ता के रूप में ईश्वर की चर्चा आती है, कोई वैसे ईश्वर को कर्म निरपेक्ष कर्ता मानता है, तो कोई दूसरा कर्मसापेक्ष कर्ता मानता है। कोई ऐसा भी दर्शन है जो १. वही, श्लोक १३८ २. श्वेताश्वतर उपनिषद् , १.२ ३, दे. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २५, २८, ३२, ३३ एवं ३५ तथा मिला०-गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ० ११३-११७ ४. दे० सन्मतितर्क-काण्ड ३, गा० ५३ और टीका के टिप्पण आदि ५. दे० शास्त्रवा० समु०, श्लोक १६४-६२, तथा योगबिन्दु, श्लोक १६७.२७५ ६. ननुमहदेत दिन्द्रजालं यन्निरपक्षः कारणमिति तथात्वैकर्मवैफल्यं सर्वकार्याणां समसमयसमुत्पादश्चेति दोषद्वयं प्रादुष्यात् । मैवमन्येथाः। सर्वदर्शनसंग्रह (नकुलीशपाशुपतदर्शन) पृ० ६५ तमिमं परमेश्वरः कमी दिनिरपेक्षः. कारणमिति पक्षं वैषम्यनघण्यदोषदूषितत्वात् प्रतिक्षिपन्तः केचन् माहेश्वराः शैवागमरि द्धान्तत्वं यथावदीक्षमाणाः कादिसापेक्षः परमेश्वरः कारणमिति पक्षं कक्षीकुर्वाणः पक्षान्तरमुपक्षिपन्ति । वही, (शैवदर्शन), पृ० ६६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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