SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 74 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जन योग साधना को समीक्षात्मक अध्ययन है। वह भारतीय योगपरक ग्रंथों में शायद ही उपलब्ध हो। हरिभद्रसूरि ने पंथ-पंथ और परम्परा-परम्परा के बीच होने वाले सर्वज्ञ विषयक विवाद को दूर करने का सरल और बुद्धिगम्य मार्ग बतलाया है । हरिभद्रसूरि कहते हैं कि सर्वज्ञत्व के विषय में चर्चा करने वाले हम तो हैं-अवाग्दी या चर्मचक्षु, तब फिर अतीन्द्रिय सर्वज्ञत्व का विशेष स्वरूप हम कैसे जान सकते हैं । अतः उसका सामान्य स्वरूप ही जानकर हम योगमार्ग में आगे बढ़ सकते हैं। यहां यह प्रश्न उठता है कि ऐसा मान लेने पर तो सुगत, कपिल अर्हत् आदि सभी सर्वज्ञ हैं फिर उनमें यह पन्थ और उपदेश भेद क्यों हैं । इसका हरिभद्रसूरि ने तीन प्रकार से समाधान किया है(क) उनके मतानुसार भिन्न-भिन्न सर्वज्ञ के रूप में माने जाने वाले महान् पुरुषों का जो भिन्न-भिन्न उपदेश हैं, वह शिष्य अथवा अधिकारी भेद के कारण है। (ख) दूसरा यह कि वैसे तो महापुरुषों के उपदेशों का तात्त्विक दृष्टि से एक हो तात्पर्य होता है, परन्तु श्रोताजन अपनीअपनी शक्ति के अनुसार उसे भिन्न-भिन्न रूप में ग्रहण करते हैं । फलतः देशना एक होने पर भी ग्रहण कर्ता की अपेक्षा से वह अनेक जैसी लगती है । १. न तत्त्वतो भिन्नमताः सर्वज्ञा बहवो यतः । मोहस्तदधिमुक्त्तीनां तदभेदाश्रयणं ततः । योगदृष्टिसमु०, श्लोक १०२ तदभिप्रायमज्ञात्वा न ततोऽवाग्दशां सताम् । युज्यते तत्प्रतिक्षेपो महानर्थकरः परः ।। निशानाथप्रतिक्षेपो तथाऽन्धानामसंगतः । तभेदपरिकल्पश्च तथैवावग्दृिशामयम् ॥ योगदृष्टिसमु०, श्लोक १३६-१४० इष्टपूतानि कमीणि लोके चित्राभिसन्धितः । नानाफलानि सर्वाणि द्रष्टव्यानि विचक्षणः ॥ चित्रा तु देशनैतेषां स्याद्विनेयानुगु ण्यतः । यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ॥ वही, ११५ और १३४ . ४. दे० योगदृष्टि समु०, श्लोक १३६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy