SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगबिन्दु के रचयिता ; आचार्य हरिभद्रसूरि का भी पोषण किया है। भेदभाव मिटाने में कुशल एवं समन्वयकार हरिभद्र सामान्यतः बड़े-बड़े और असाधारण विद्वान् भी जब चर्चा में उतरते हैं तब उनमें विजिगीषा तथा स्वपरम्परा को श्रेष्ठ रूप में स्थापित करने की भावना ही मुख्य रहती है, जिससे सम्प्रदाय-सम्प्रदाय के बीच तथा एक ही सम्प्रदाय का विविध शाखाओं में बहुत बड़ा मानसिक अन्तर पड़ जाता है। वैसे अन्तर के कारण विरोधी पक्ष में ग्रहण करने योग्य उदात्त बातों को भी शायद ही कोई ग्रहण कर सकता हो किन्तु इसके फलस्वरूप परिभाषाओं की शुष्क व्याख्या और शाब्दिक धोखा-धड़ी एवं विकल्प जाल के आवरण में सत्य की सांस घुट जाती है। ____ विरोधी समझे जाने वाले भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के बीच अन्तर को कम करने का योगीगम्य मार्ग हरिभद्रसूरि ने विकसित किया है। सब कोई एक दूसरे से विचार एवं आचार उन्मुक्त मन से ग्रहण कर सकें, ऐसा द्वार खोल दिया है जो सचमुच ही निराला है। हरिभद्रसरि ने अपने योगबिन्दु ग्रंथ में मध्यस्थ योगज्ञ को लक्ष्य करके कहा कि योगबिन्दु सभी योग शास्त्रों का अविरोधी अथवा विसंवाद रहित स्थापन करने वाला एक प्रकरण ग्रंथ है। श्री अरविन्द ने 'शब्दब्रह्माऽतिवर्तते' की जो बात कही है। उसी को बहुत पहले ही हरिभद्रसूरि ने 'सामर्थ्य योग' शब्द से सूचित किया है। हरिभद्रसूरि स्वभाव से ही समन्वयवादी थे। इसी से वे मिथ्याभिनिवेश या कूतर्कवाद का भी पुरस्कार नहीं करते और योगदष्टिसमुच्चय में कुर्तक, विवाद और मिथ्याभिनिवेश के ऊपर जो मार्मिक चर्चा की १. सर्वेषां योगशास्त्राणामविरोधेन तत्त्वतः । सन्नीत्या स्यापकं चैव मध्यस्थांस्तद्विदः प्रति ॥ योगबिन्दु, श्लोक २ २. (अराविन्द) सिंथेसिस आफ योग, अ० ४ ३. शास्त्रसन्दर्शितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः । शक्त्युद्र काद्विशषेण सामर्थ्याख्योऽयमुत्तमः ।। योगदृष्टिसमु०, श्लोक ५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy