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________________ 72 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन गए हैं, परन्तु ऐसा लगता है कि इन कृतियों के द्वारा जैन परम्परा के रुढ़ मानस को विशेष उदार बनाने का उनका आशय रहा होगा। इसी से उन्होंने जैन परम्परा में प्रचलित रुढ़ियों को यह भी सूना दिया है कि बहुजन सम्मत होना सच्चे धर्म का लक्षण नहीं है बल्कि सच्चा धर्म तो किसी एक मनुष्य की विवेकदृष्टि में होता है । ऐसा कहकर उन्होंने लोक संज्ञा अथवा महाजनो येन गतः स पन्थः का प्रतिवाद किया है। उनकी यह आध्यात्मिक निर्भयता स्वपरम्परा को नई देन है। निवृत्ति की दिशा में विशेष रूप से उन्मुख समाज में बहुत बार ऐसे आवश्यक धर्म की उपेक्षा होने लगती है। हरिभद्रसूरि ने शायद यह बात तत्कालीन समाज में देखी और उन्हें लगा कि आध्यात्मिक माने जाने वाले निवृत्तिपरक लोकोत्तर धर्म के नाम पर लौकिक धर्मों का उच्छेद कभी वाञ्छनीय नहीं है। इसी कारण उन्होंने देव, गरु व अतिथि आदि की पूजा सत्कार के साथ दीन जनों को दान देने का भी विधान किया है। जैन परम्परा का धार्मिक आचार अहिंसा की नींव पर आधारित है परन्तु हिंसा-विरमण आदि पद अधिकांशतः निवृत्ति के सूचक होने से उनका भावात्मक पहलु उपेक्षित रहा है। हरिभद्रसरि ने देखा कि हिंसा, असत्य निवृत्ति आदि अणुव्रत केवल निवृत्ति से ही पूर्ण नहीं होते किन्तु उनका एक प्रवर्तक पक्ष भी है। इससे उन्होंने जैन परम्परा में प्रचलित अहिंसा, अपरिग्रह जैसे व्रतों की भावना को पूर्ण रूप से व्यक्त करने के लिए मैत्री, करुणा, माध्यस्थ और उपेक्षा इन चार भावनाओं को योगशतक में गंथकर निवृत्ति धर्म का परस्पर उपकार करने वाला आध्यात्मिक रसायन तो तैयार किया ही साथ में जैनधर्म में नवीनता १. मूत्तूण लोगसन्नं उडढ़ण य साहू समयसम्भावं । सम्मं पयट्टियव्यं बुहेण मइनिउणबुद्धीए ॥ योगविशि० गा० १६ २. पढमस्स लोगधम्मे परपीडा वज्जणाइ ओहणं ।। गुरुदेवातिथिपूयाई दीणदाणाइ अहिगिच्च ॥ योगशतक, गा० २५ दे० वही, गाथा ७८-७६ बौद्ध दर्शन में इन्हीं चार को ब्रह्म विहार अथवा अप्रामाण्य कहा है। जो एक योग्य साधक को परमावश्यक हैं। दे० अप्रमाणानि चत्वारि, मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षा च । अभि० को० भा०, ८, २६, पृ० ४५२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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