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________________ योगबिन्दु के रचयिता : आचार्य हरिभद्रसूरि आचार्य हरिभद्रसूरि ने जिस सांख्यदर्शन का युक्तियुक्त खण्डन किया है, उसी सांख्यमत के आद्य द्रष्टा के रूप में सर्वत्र विश्रुत और बहुमान्य महर्षि कपिल को उद्दिष्ट करके उन्होंने जो कुछ कहा है जैसे कि --- मेरी दृष्टि से प्रकृतिवाद भी सत्य है क्योंकि उसके प्रणेता 'कपिल' दिव्य लोकोत्तर महामुनि है।' इस तरह साम्प्रदायिक खण्डनके क्षेत्र में किसी विद्वान् ने अपने प्रतिवादी का इतने आदर के साथ निर्देश किया है तो वह हैं एकमात्र हरिभद्रसूरि ही । 71 ऐसे ही क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद इन तीन बौद्धवादों की समीक्षा करने पर भी हरिभद्रसूरि इन वादों के प्रेरक दृष्टि बिन्दुओं का अपेक्षा विशेष मे न्यायोचित स्थान देते हैं और महात्मा बुद्ध के प्रति आदरभाव व्यक्त करते हुए वे कहते हैं कि 'बुद्ध जैसे महामुनि एवं अर्हत को देशना अर्थहीन नहीं हो सकता' ।' स्वपरम्परा को नवीन दृष्टिदाता सामान्य दार्शनिक विद्वान् अपनी समग्र विचार शक्ति एवं पाण्डित्यबल पर परम्परा की समालोचना में लगा देते हैं और अपनी परम्परा को कहने जैसा सत्य स्फुरित होता हो, तब भी वे परम्परा के रोष का भाजन बनने का साहस नहीं दिखलाते और उस विषय में जैसा चलता है वैसा ही चलते रहने देने की वृत्ति रखकर अपनी परम्परा को ऊपर उठाने का अथवा उसकी दुर्बलता को दिखलाने का शायद ही प्रत्यन करते हैं किन्तु हरिभद्रसूरि इस विषय में सर्वथा निराले हैं । उन्होंने परवादियों के अथवा पर-परम्पराओं के साथ के व्यवहार में जैसी तटस्थ वृत्ति और निर्भयता दिखलाई है, वैसी ही तटस्थवृत्ति और निर्भयता स्वपरम्परा के प्रति भी कई मुद्दों को उपस्थित करने में दिखलाई है | प्राकृत भाषा में लिखित योगवंशिका और योगशतक मुख्य रूप से जैन परम्परा की आचार-विचार प्रणालिका का अवलम्बन लेकर लिखे १. एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि । कपिलोक्त तत्त्वश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः । शास्त्रावार्ता समु० श्लोक २३७ न चैतदपि न न्यायं यतो बुद्धो महामुनेः । २. सुवैद्यवद्विनाकार्यं द्रव्यासत्यं न भाषते ॥ वही, श्लोक ४६६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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