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________________ 70 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन दिया है ।। शान्तरक्षित की भांति हरिभद्रसूरि ने भी सांख्य मत के प्रकृतिकारणवाद की पयालोचना में भी दोनों की भूमिका में भेद देखा जाता है। शान्तरक्षित ने प्रकृतिपरीक्षा में सांख्य की दलीलों का क्रमशः निराकरण किया है परन्तु अन्त में वह प्रकृतिवाद से कोई उपादेय स्वरूप अपनी दृष्टि से नहीं बतलाते, जबकि हरिभद्रसूरि बतलाते हैं। प्रकृतिवाद का खण्डन करते समय हरिभद्रसूरि के मन को मानों ऐसा प्रतीत हुआ कि इस प्रकृतिवाद में कुछ रहस्य है और उसको बतलाना चाहिए। ऐसे ही विचार के कारण उन्होंने कहा कि जैन परम्परा भी अपनी दष्टि से प्रकृतिवाद मानती है। बहुमानवृत्ति सामान्य रूप से दार्शनिक परम्परा में सभी बड़े-बड़े विद्वान् अपने से भिन्न परम्परा के प्रति पहले से ही लाघव बुद्धि और कभी-कभी अवगणना बुद्धि से युक्त होते हैं । हरिभद्रसूरि अपने ढंग से परमत को समालोचना तो करते हैं परन्तु उस समालोचना में उस-उस मत के पुरस्कर्ताओं या आचार्यों को थोड़ी-सी भी लाघव दष्टि से नहीं देखते बल्कि स्वदर्शन के पुरस्कर्ताओं और आचार्यों के समान ही उन्हें भी बहुमान देते हैं। ततश्चेश्वरकतत्ववादोऽयं यज्यते परम् । सम्यग्न्यायविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धवद्धयः ।। ईश्वर: परमात्मैव तदुक्तं ब्रतसेवनात् । यतो भक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद् गुणाभावतः ।। तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः । तेन तस्यापि कत्तु त्वं कल्प्यमानं न दुष्यति ॥ काध्यमिति तद्वाक्ये यतः केषाँचिदादरः । अतस्तदानुगुण्येन तस्य कर्तृत्वदेशना। परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मत आत्मैव चेश्वरः । स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥ शास्त्रवार्ता समुच्चय, श्लोक २०३-७ २. प्रकृतिश्चापि सन्न्यायात् कर्मप्रकृतिमेव हि । वही, श्लोक २३२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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