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योगबिन्दु के रचयिता : आचार्य हरिभद्रसूरि
तथा जीवगत संस्कार विशेष का भावकर्म कहती है ।
हरिभद्रसूरि ने देखा कि जैन परम्परा बाह्य भौतिक तत्त्व तथा आन्तरिक चेतन शक्ति इन दोनों के परस्पर प्रभाव वाले संयोग को मानकर उसके आधार पर कर्मवाद और पुनर्जन्म का चक्र घटाती है, तो चार्वाक मत अपने ढंग से भौतिक द्रव्य का स्वभाव मानता है, जबकि माँ तथा बौद्ध अभौतिक तत्त्व का तद्गत स्वभाव मानते हैं । अतः हरिभद्र ने इन दोनों पक्षों में आए हुए एक-एक पहलु को परस्पर के पूरक के रूप में सत्य मानकर कह दिया कि जैन कर्मवाद में चार्वाक' और मीमांसक या बौद्ध मन्तव्यों का समन्वय हुआ है | "
हरिभद्रसूरि मानों मानव मानस की गहनता नापते हुए इस तरह कहते हैं कि लोग जिन शास्त्रों एवं विधि-निषेधों के प्रति आदर भाव रखते हैं । वे शास्त्र एवं वे विधि-निषेध रूप उनके मत यदि ईश्वर प्रणीत हों तो वे सन्तुष्ट हो सकते हैं, और वैसी वृत्ति मिथ्या भी नहीं है । अतएव इस वृत्ति का पोषण होता रहे तथा तर्क और बौद्धिक समीक्षा की कसौटी पर सत्य साबित हो, ऐसा सार निकालना चाहिए । यह सार अपने प्रयत्न से विशुद्धि के शिखर पर पहुंचे हुए व्यक्ति को आदर्श मानकर उसके उपदेशों में कर्तृत्व की भावना रखता है ।
हरिभद्रसूरि की कर्तृत्व विषयक तुलना इससे भी की जाती है जैसे कि वह स्वयं कहते हैं—- जीव मात्र तात्त्विक दृष्टि से शुद्ध होने के कारण परमात्मा या उसका अंश है और वह अपने अच्छे बुरे भावों का कर्त्ता भी है । इस दृष्टि से देखें तो जीव ईश्वर है और वही कर्त्ता है । इस दृष्टि से देखें तो जीव ईश्वर है और वह कर्ता है । इस तरह कर्तृत्ववाद की सर्वसाधारण उत्कण्ठा को उन्होंने तुलना द्वारा विधायक रूप
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कर्मणो भौतिकत्वेन यद्व तदपि साम्प्रतम् ।
आत्मनो व्यतिरिक्तं तत् चित्तभावं यतो मतम् ॥ शास्त्रवार्ता समु० श्लोक ६५
शक्तिरूपं तदन्ये तु सूरयः सम्प्रचक्षते ।
अन्ये तु वासनारूपं विचित्रफलदं मतम् ॥ वही, श्लोक ६६
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