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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समौक्षात्मक अध्ययन
आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म आदि को मानता है, तो उनकी दृष्टि में उसे आस्तिक ही कहना चाहिए। उन्होंने कहा कि वैदिक या अवैदिक सभी आत्मवादी दर्शन आस्तिक हैं ।। इसे हरिभद्रसरि की साम्प्रदायातीत समत्वदृष्टि की विशेषता और उनके महान् व्यक्तित्व को उदात्तता ही कहा जाएगा।
तुलनात्मक दृष्टि
हरिभद्रसूरि ने परम्परागत प्रचलित खण्डन-मण्डन की परिपाटी में तुलनात्मक दृष्टि को जो और जैसा स्थान दिया है वह और वैसा स्थान उनके पूर्ववर्ती, समकालीन या उतरवर्ती किसी भी अन्य आचार्य के ग्रंथ में शायद ही प्राप्त हो सके । यथार्थ के अधिकाधिक समीप पहुंचा जा सके, इस हेतु से उन्होंने परमातावलम्बियों के मन्तव्य को हृदय में पहले अधिक गहरा उतारने का प्रयत्न किया है और अपने मन्तव्य के साथ उनके मन्तव्य का परिभाषा भेद अथवा निरूपणभेद होने पर भी किस तरह साम्य रखता है, यह उन्होंने स्व-पर मत की तुलना द्वारा अनेक स्थानों पर बतलाया है। परमत की समालोचना करते समय कदाचित उससे अन्याय न हो जाए, वैसी पापभीरुवृत्ति उन्होंने दिखलाई, वैसी वृत्ति शायद ही किसी विद्वान् ने दिखलाई हो। यहां उनकी इस तुलनात्मक दृष्टि के कुछ उदाहरण प्रस्तुत है
हरिभद्रसूरि ने भूतवादी चार्वाक की समीक्षा करके उसके भूत स्वभाववाद का निरसन किया है और परलोक एवं सुख-दु:ख के वैषम्य का स्पष्टीकरण करने के लिए कर्मवाद की स्थापना की। इसी प्रकार चित्तशक्ति या चित्तवासना को कर्म मानने वाले मीमांसक और बौद्धमत का निराकरण करके जैन दृष्टि से कर्म का स्वरूप क्या है ? यह स्पष्ट किया है। इस अन्य चर्चा में उन्हें ऐसा लगा कि जैन परम्परा कर्म का उभयविध स्वरूप मानती है । चेतन पर पड़ने वाले भौतिक परिस्थितियों के प्रभाव को, और भौतिक परिस्थितियों में पड़ने वाले चेतन संस्कार के प्रभाव को मानने के कारण, वह सूक्ष्म भौतिकवाद को द्रव्य और कर्म
१. एवमास्तिकवादानां कृत् संक्षेपकीर्तनम् ।
षड्दर्शनसमुच्चय, श्लोक ७७
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