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योगबिन्दु के रचयिताः आचार्य हरिभद्रसुरि
फलों से भी अधिक मधर, मन दया का सागर, वक्तव्य विद्वत्तापर्ण एवं निष्पक्ष था। वे अपूर्व काव्यसर्जन शक्ति से सम्पन्न थे। उनका भाषा एवं भावों पर पूर्ण अधिकार था । वे भारतीय दर्शनों के मर्मज्ञ अधिकारी वेत्ता, समीक्षक एवं स्वयं एक चलती फिरती लायब्रेरी थे। उनकी स्मृति अत्यन्त जागरूक थी। मेधावी साधक और अनेक महान् गणों के पूज आचार्य हरिभद्रसरि का व्यक्तित्व स्वच्छ दर्पण था। अनेक व्यक्तित्व एवं गुणों का वर्णन वचनातीत हैं फिर भी उनके जीवन सागर की जिन कतिपय विशेषताओं को विद्वानों ने उजागर किया है, उन्हीं को यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया जाता है।
भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि सन्त
सन्त वही होता है जो स्व और पर का हित साधक हो-परोपकाराय सतां विभूतयः । प्रमाद से दूर निर्माण के कार्य में सतत प्रयत्नशील रहना, बाधाओं व मुसीबतों के आगे घुटने न टेकना, अपने पथ अथवा मंजिल की ओर बेधड़क बढ़ते चले जाना यही सन्त के विशेष गुण हैं। वस्तुतः ऊर्ध्वगामी होना सत्त्व का एकमात्र स्वभाव भी है। मंजिल पर पहुंचने के लिए उसे परस्पर का सहयोग आवश्यक होता है, इसीलिए जैनदर्शन में भी परस्परोपग्रहो जीवानाम् की मंगल भावना भायी गयी है । अभिप्राय यह है कि सत्त्व का उद्देश्य परस्पर में एक दूसरे जीवों अथवा प्राणियों का उपकार करना ही है।
हरिभद्रसूरि के जीवन में यह सब कुछ घटित हुआ। उन्होंने स्वहित के साथ-साथ परहित साधन भी निरन्तर किया। अनेक प्राणियों को कल्याणमार्ग में लगाया तथा अनेक ग्रंथ रत्नों को देकर भारतीय संस्कृति के भण्डार को अक्षय बना दिया । उनके ग्रंथों का अध्ययन अध्यापन कर सत्त्व आज भी लाभान्वित हो रहे हैं।
समाज के यथार्थ सेवक
सत्त्व कहीं किसी के घर में अपने कर्मोदय के वश जन्मता है और कहीं विशेष स्थान पर पहुंच कर वह जहां समाज से बहुत कुछ ग्रहण करता है, वहीं समाज को कुछ देता भी है। उसे बदलने का, उसकी उन्नति करने के प्रयत्न भी करने पड़ते है। हरिभद्रसूरि ने
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