SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन के मध्य अर्थात् हवीं शदी में चला जाता है, जो कुछ विद्वानों को सम्भवतः स्वीकार्य नहीं होगा। उपयक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि हरि भद्रसूरि के महान् एवं घटना प्रधान जीवन तथा उनके अनुपम साहित्यिक अवदान की विपुलता को दृष्टिगत करने से उनकी अधिकतम आयु का अनमान १०० वर्ष के लगभग लगाया जा सकता है। इससे उन्हें मल्लवादी के समकालीन और उद्योतन सूरि के गुरु मानने में भा कोई आपत्ति नहीं रह जाती। यदि हरिभद्ररि द्वारा निर्देशित दार्शनिकों का समय सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से लेकर ८वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक माना जाए तब विद्वानों का बहुमत भी इसी के पक्ष में जाता है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ७वीं शदी के आरम्भ और आठवी शदी के अन्त तक इस नश्वर भूतल पर विद्यमान थे। पं. सुखलाल संववी एवं श्रीहीरालाल कापड़िया ने भी हरिभद्रसूरि का यही समय (८वीं शदी) माना है।' इसके अतिरिक्त पण्डित प्रवर सुखलाल संघवी के साथ डा. हीरालाल जैन, डा० ए०एन० उपाध्यः, प्रोफेसर दलसुख भाई मालवणिया और डा० विमलप्रकाश जैन प्रभृति आधुनिक विद्वान् भी आचार्य हरिभद्रसूरि का समय निश्चित रूप से आठवीं शताब्दी ही मानते हैं, और यही प्रामाणिक भी लगता है। (ग) हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व __आचार्य हरिभद्रसूरि बहुमुखी प्रतिभा के धनी एवं श्रेष्ठ साधक थे। उनका व्यक्तित्व बहु आयामी था। उनके हृदय में नवनीतासी कोमलता थी और वाणी प्रचुर माधुर्य से ओतप्रोत थी। आपका व्यवहार १. वही, पृ० ४७ २. वही, ३. दे० समदर्शी आचार्य हरिभद्रसूरि, पृ० १० तथा श्रीहरिभद्रसूरि, पृ० ३४६ ४. दे० षड्दर्शनसमुच्चय, प्रधान सम्पादकीय, पृ० ७ ५. वही. प्रस्तावना, पृ० २० । ६. दे. जैन योग ग्रन्थ चतुष्टय, प्रस्तावना, पृ० २४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy