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योगबिन्दु के रचयिता : आचार्य हरिभद्रसूरि
के उल्लेखों से यह मत असत्य सिद्ध हो जाता है । यदि शंकराचार्य हरिभद्रसूरि के पूर्ववर्ती होते तब हरिभद्रसूरि उनका उल्लेख अपनी किसी न किसी रचना में अवश्य करते, जैसा कि उन्होंने धर्मकोति आदि का उल्लेख किया है। अतः हरिभद्रसूरि निस्सन्देह शंकराचार्य के पूर्ववर्ती थे ।
डा० महेन्द्रकुमार न्यायचार्य ने जयन्त की न्यायमंजरी का समय ई० ८०० से लगभग मानकर हरिभद्रसूरि का समय ८०० के बाद स्वीकार किया है । अपने इस कथन की पुष्टि में प्रमाण स्वरूप वे हरिभद्रसूरि द्वारा रचित षड्दर्शसमुच्चय में उपलब्ध जयन्तभट्ट की न्यायमंजरी के कुछ पद्य' उद्भुत करते हैं । परन्तु प्रकृत में यह स्वीकार करना असम्भव है कारण कि एक तो यह तिथि यदि मान भी ली जाए तब हरिभद्रसूरि, उद्योतनसूरि के गुरु के रूप में स्वीकार नहीं किये जा सकेंगे | अतः डा० नेमिचन्द्रशास्त्री का कथन ठीक ही जान पड़ता है और जैसा कि वे स्वयं कहते भी हैं कि सम्भवतः ऐसा प्रतीत होता है कि हरिभद्रसूरि और जयन्तभट्ट इन दोनों ने किसी एक ही पूर्ववर्ती आचार्य की रचना से उक्त पद्य उद्धृत किए हैं । "
हरिभद्रसूरि के समय निर्णय में विद्वानों ने मल्लवादी को भी घसीट लिया है । इसका एक मात्र कारण है कि सटीक नयचक्र के रचयिता मल्लवादी का निर्देश हरिभद्रसूरि ने अनेकान्तजयपताका की टीका में किया है । डा० शास्त्री मानते हैं कि हरिभद्रसूरि सम्भवतः मल्लवादी के समसामयिक विद्वान् थे और जिनका समय ८२७ ई० सन् के आस-पास माना जाना चाहिए ।"
इस दृष्टि से कुवलयमालाकहाकार उद्योतनसूरि के शिष्यत्व को यदि ध्यान में रखते हैं तो हरिभद्रसूरि का समय ई० सं० ७३० से ८३० गंभीरगजिता रंभनिभिन्नगिरिगह्वरा । रोलम्बगवलव्यालतमालमाल मलिन त्विषः ॥
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त्वंगत डिल्लतासंग पिशंगीतुंगविग्रहा ।
वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैवं प्रायाः पयोमुचः ।। षड्दर्शनसमुच्चय, श्लोक ३०,
तथा न्यायमंजरी, पृ० १२६
दे० हरि० पा० क० सा० आ०परि०, पृ० ४५-४६
वही, पृ० ४६
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