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योगबिन्दु के रचयिताः आचार्य हरिभद्रसूरि
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विचरण क्षेत्र
वैसे तो जैनसाधु का विचरण क्षेत्र समस्त भारतवर्ष होता है फिर भी कुछ परिस्थिति एवं कार्यवश सभी जैन साधु सर्वत्र विहार नहीं कर पाते । ऐसा ही हरिभद्रसूरि के विषय में भी ज्ञात होता है। मुख्य रूप से हरिभद्रसूरि राजस्थान और गुजरात में ही परिभ्रमण करते रहे किन्तु उनकी कृति 'समराइच्चकहा' में उत्तर भारत के नगरों और जनपदों के नाम मिलते हैं। जिससे ऐसा भी प्रतीत होता हैं कि उन्होंने उत्तर भारत की भूमि को अपने सद्धर्मामृत से सिञ्चित किया था।
पोरवाल वंश की स्थापना
हरिभद्रसूरि ने मेवाड़ में पोरवाल वंश की स्थापना करके उन्हें जैन परम्परा में दीक्षित किया था। ऐसी अनुश्रुति जातियों के इतिहास लिखने वालों ने लिखी है। (ख) हरिभद्रसूरि का समय
यद्यपि आचार्य हरिभद्रसूरि ने स्पष्ट रूप से अपने विषय में कहीं भी कुछ नहीं लिखा है फिर भी जो कुछ संक्षिप्त सूचना उनकी कृतियों में और उनके समकालीन विद्वान् लेखकों की रचनाओं में उपलब्ध होती है, उसी के आधार पर आधुनिक विद्वानों ने सूरि के समय को निश्चित करने का प्रयास किया है। अनेक अमूल्य ग्रंथ रत्नों की रचना करके भी यत्किञ्चित् प्रामाणिक ही न सही, झूठ-मठ की भी कुछ सूचना न देने के कारण हरिभद्रसूरि के समय के विषय में आज भी विद्वानों में मतभेद पाया जाना स्वाभाविक है।
इस मतभेद के कारण कुछ विद्वान् उन्हें छठी शताब्दी में आविर्भूत हुआ मानते हैं तो कुछ उन्हें आठवीं शताब्दी का और कुछ उनका अस्तित्व इसके बाद स्वीकार करते हैं। इस प्रकार हरिभद्रसूरि के समय के सम्बन्ध में निम्न तीन मान्यताएं प्रसिद्ध हैं -
१. समराइच्चकहा, पृ० ८४५, ५०१, ६१८ २. दे० धर्मसंग्रहणी, प्रस्तावना, पृ० ७
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