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________________ 54 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन गई थी। इस घटना के निदान स्वरूप गुरु जी ने आचार्य हरिभद्रसूरि को निम्न तीन गाथाएं लिखकर भेजी थी१. गुणसेण अग्निसम्मा सीहाणंदा य तह पिआपुत्ता। सिहि जालिणि माइसुआ घण-घण सिरिओ य पइभज्जा ॥१॥ २. जयविजया य सहोअर धरणो लच्छी य तहप्पई भज्जा। सेणविसेणापित्तिय उत्ता जम्मम्मि सत्तमए ।।२।। . ३. गुणचंद वाणमंतर समराइच्चगिरिसेण पाणो य । एगस्सतओ मुक्खो णतो अण्णस्स संसारो ॥३॥ इन गाथाओं को पढ़ते ही हरिभद्रसूरि का प्रतिशोधात्मक क्रोध शान्त हो गया और इन्हीं गाथाओं को आधार बनाकर सम्भवतः हरिभद्रसूरि ने समराइच्चकहा की रचना की और जितने बौद्ध भिक्ष स्वाहा हुए थे, उनके पश्चाताप स्वरूप उतने ही प्रकरणग्रंथ लिखने की उन्होंने प्रतिज्ञा की थी। इस तरह उन्होंने शिष्यों के विरह से उत्पन्न दुःख से शान्तिलाभ प्राप्त किया और इसका स्मरण सूचक 'भवविरह' पद अपने उपनाम के रूप में सुरक्षित रखा। (३) याजकों को दिए जाने वाले आर्शीवाद और उनके द्वारा किए जाने वाले जय-जय कार का प्रसंग जब कोई हरिभद्रसूरि के दर्शनार्थ आकर उन्हें प्रणाम करता था तब उसे हरिभद्रसूरि प्रत्युत्तर में आर्शीवाद स्वरूप जैसे आज कल 'धर्मलाभ' कहा जाता है, वैसे ही 'भवविरह' कहकर आर्शीवाद देते थे। इस पर आर्शीवाद लेने वाला भक्त उन्हें भवविरह सूरि 'बहुत जीए' ऐसा कहकर सम्बोधित करते थे। १. दे० हरि० प्रा० क०सा०, आ०परि०, पृ० ५१ २. समराइच्बकहा, प्रस्तावना, गा० २३-२५ ३. हरि० प्रा० क०सा० आ० परि०, पृ० ५१ ४. चिरं जीवउ भव विरह सूरित्ति । कहावली पत्र ३०१ म Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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