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योगबिन्दु के रचयिता: आचार्य हरिभद्रसूरि निडर एवं प्रबल उत्साही किसी के रोके भला कभी रुके भी हैं। होनहार प्रबल होती है। अन्ततः गुरुवर्य को स्वीकृति देनी ही पड़ी।
बौद्ध मठ में दोनों को बौद्ध वेशभूषा में रहना तो पड़ता था, किन्तु ये लग्न के पक्के थे । अत: साथियों के साथ बौद्धदर्शन का अध्ययन तो वे करते ही थे साथ ही अपने मन के प्रतिकल जान पड़ने वाले सहपाठियों के मह बन्द करने के लिए वे कभी-कभी जैन मत से उनका खण्डन भी कर देते थे। वे एक और भी महत्त्वपूर्ण कार्य करते थे। वह यह था कि वे इस विषय को साथ के साथ भोजपत्रों पर अंकित करते जाते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि एक दिन इनके जैन होने का भेद खुल गया। तब बौद्धाचार्य और उसके प्रबल समर्थक इन पर क्रुद्ध ही नहीं हए बल्कि इन्हें धोखे से मारने की य जना भी उन्होंने बना ली। इधर इनको भी इसका पता चल गया जिससे ये दोनों अवसर पाकर वहां से भाग निकले, फिर भी बौद्धों ने इनका पीछा करके इन्हें रास्ते में घेर लिया।
बौद्धों ने इनके साथ संघर्ष किया जिसमें इनमें से एक हंस मारा गया किन्तु परमहंस जो किसी तरह बच निकला था अपने भोजपत्रों सहित हरिभद्रसूरि के पास जा पहुंचा। वहां गुरु चरणों में भोजपत्र रखकर बौद्धों को क्रूरताभरी आप बीती सुनाते-सुनाते श्रम जन्य पीड़ा
और भ्रातृवियोग के दुःख को न सहन कर पाने से वह भी अकालमृत्यु को प्राप्त हो गया।
इससे हरिभद्रसूरि के मन में बौद्धों के प्रति प्रतिशोध की प्रबल भावना भड़क उठी और उन्होंने राज्य सभा में जाकर बौद्धों से शास्त्रार्थ करने की घोषणा की। शर्त यह रखी कि पराजित होने वाले को उबलते हुए तेल के कड़ाहे में कूदना होगा। राजा की अध्यक्षता में शास्त्रार्थ शुरु हुआ। आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने अकाट्य तों से एक-एक कर १४४४ बौद्ध विद्वानों को पराजित कर डाला। पूर्व शर्त के अनुसार पराजितों को उबलते हुए तेल के कड़ाहे में गिरना था कि इस विषय की सूचना किसी तरह आचार्य हरिभद्रसूरि के गुरुदेव को मिल गयो । उन्होंने अपने प्रभाव का प्रयोग कर इस अनर्थ को रुकवा दिया किन्तु शर्त के अनुसार कुछ एक विद्वानों की दृष्टि में यह नर बलि दी
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