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________________ 52 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन (१) धर्म स्वीकार का प्रसंग याकिनी महत्तरा जब हरिभद्रसूरि को अपने गुरु के पास ले गई तब उन्होंने उन्हें प्राकृत गाथा का अर्थ बतलाया। इसके बाद हरिभद्र ने सूरिवर से पूछा कि धर्म क्या है ? और उसका फल क्या है ? इस पर आचार्यश्री ने उन्हें 'सकाम और निष्काम' धर्म के दो भेद बतलाए। सकाम धर्म की आराधना का फल स्वर्गादि सुखों की प्राति है जबकि निष्काम धर्माराधना से ‘भवाविरह' अर्थात् जन्मजरा और मरणादि से छुटकारा मिल जाता है। हरिभद्र ने भवविरह को ही श्रेयस्कर मानकर उसे ही अंगीकार कर लिया ।। इस प्रकार हरिभद्र मोक्ष लाभ के उद्देश्य से श्रमणत्व में दीक्षित हुए और 'भवविरह' उनका विशेषण बन गया। (२) शिष्यों के वियोग का प्रसंग ___इस विषय में 'शास्त्रवार्ता समुच्चय' का सम्पादन करते हुए मुनि जयसुन्दर विजय ने जिस घटना का उल्लेख किया है। उसे यहां ज्यों का त्यों देना कर्तव्य समझता हूं। जो इस प्रकार है हरिभसूरि के दो भागिनेय पुत्र थे-हंस और परमहंस । वे दोनों ही अत्यन्त मेधावी और विनयशील थे। दोनों ने ही हरिभद्रसूरि के पास दीक्षित होकर अनन्य भक्ति और कठोर परिश्रम से शास्त्राध्ययन कर प्रशंसनीय पाण्डित्य प्राप्त कर लिया था। इसके फलस्वरूप इनके मन में जैन धर्म के उत्कर्ष के लिए प्रबल भावना जागृत हो गई। इन दोनों ने जैन धर्म की प्रभावना के लिए बौद्ध धर्म के बढ़ते हुए प्रभाव पर अंकुश लगाने की सोची। गुरु से दोनों ने एक बौद्ध पाठशाला में जाकर छद्मवेश में अध्ययन करने की अनुमति मांगी। हरिभद्रसूरि ने इसे संकट पूर्ण जानकर उन्हें इससे दूर रहने की सलाह दी, परन्तु १. (क) जाइणिमयहरियाए रइया ए ए उ धम्मपुत्रेण । हरिभद्दायरियणं भवविरहं इच्छमाणणं ॥ उपदेशपद प्रष्टी०, १०३६ (ख) हरि० प्रा० क० सा० आ०परि०, पृ० ५० २. शास्त्रवा० समु०, प्रस्तावना, पृ० ६ ३. पं० सुखलाल ने इनके नाम जिनभद्र और वीरभद्र लिखे हैं दे० समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० १२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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